जानकी की सीतामढ़ी

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सीतामढ़ी में प्रतिवर्ष दो मेले लगते हैं। चैत्र शुक्ल नवमी से पूर्णिमा तक राम के जन्मोत्सव (रामनवमी) और अगहन के राम विवाह के अवसरों पर ये मेले संयोजित होते हैं। यहां का रामनवमी मेला विश्वप्रसिद्ध विराट पशु मेला है। अगहन शुक्ल पंचमी को राम के विवाहोत्सव के लिए प्रसिद्ध है। इसे विवाह पंचमी भी कहते हैं। इस तिथि से संबद्ध मेले में सीतामढ़ी का सांस्कृतिक चित्र रमता रहा है। अब भी यह सामुदायिक उत्साह को दर्शित करती है। विश्व विख्यात हरिहर क्षेत्र मेला के बाद सीतामढ़ी के मेलांे का ही स्थान आता है। सीतामढ़ी में लगने वाले दोनों मेलों की अलग-अलग पहचान है। अगहन शुक्ल पंचमी को लगने वाले मेले में आदि शक्ति सीता तथा मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के विवाह का दिन हिन्दुओं के लिए बहुत विशिष्ट स्थान रखता है। यह मिथिलांचल की सांस्कृतिक परम्परा के प्रतीक के रूप में स्थापित है। इस अवसर पर जानकी मंदिर से भव्य बरात गाजे-बाजे के साथ निकलती है जो शहर के पूर्व में स्थित पीली कुटी तक जाती है। पीलीकुटी में राम-लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुध्न के स्वरूपों की आरती होती है। पुनः बरात नगर के मुख्य पथ से नगर परिभ्रमण करती हुई जानकी मंदिर लौटती है जहाँ सीता तथा राम के साथ साथ लक्ष्मण-उर्मिला, भरत-मांडवी, और शत्रुधन-श्रुतकीर्ति का स्वरूप धारण किये बालकों के विवाह पूरी वैदिक रीति से संपन्न होते हैं। विवाह पंचमी के अवसर पर सीता राम की झाँकी सजे हुए हाथियों पर निकलती है। उनकी सेवा में चँवर डुलाते सीतामढ़ी महन्त भी सम्मिलित होते हैं। इस वर यात्रा में मेले के यात्रियों की अपार भीड़ के साथ साथ नगर के भी स्त्री-पुरुष भजन कीर्तन करते हुए पीली कुटी के साथ साथ नगर परिभ्रमण करके वापस जानकी मंदिर पहुंचते हैं। उस समय मंदिर में दर्शनार्थियों तथा श्रद्धालुओं की बहुत भीड़ होती है।

दरभंगा के महाराज ने गोस्वामी तुलसीदास जी के लिखे दोहे से अभिभूत होकर दी थी जमीन:

सीतामढ़ी का पूरा मेला प्रक्षेत्र जानकी जी के नाम अंकित है, जिसे दरभंगा के तत्कालीन महाराज ने गोस्वामी तुलसीदास जी को उनके लिखे दोहे से अभिभूत होकर दिया था। कहा जाता है कि एक बार गोस्वामी जी सीतामढ़ी आये थे। उन्होंने यहां की दयनीय दशा देखकर एक दोहा लिखकर दरभंगा के महाराज को दिया था, जिससे महाराज काफी भावुक हो गए और उन्होंने बारह सौ एकड़ भूमि मां जानकी के नाम अंकित कर दिया। परन्तु, तुलसीदास जी लिखित दोहा दरंभगा महाराज के संग्रहालय में आज उपलब्ध नहीं है। संभव है कि यह जनश्रुती हो। जानकी मंदिर का रजत द्वार देखते ही बनता है। इस द्वार का निर्माण टीकमगढ़ की महारानी ने करवाया था। टीकमगढ़ की महारानी द्वारा निर्मित जनकपुर (नेपाल) का नौलखा मंदिर अपनी अद्वितीय निर्माण कला के लिए नेपाल सहित सम्पूर्ण भारत में विख्यात है। महारानी ने जानकी मंदिर को रजत द्वार के अतिरिक्त सिंहासन तथा सोने चांदी जड़ित पूजा की चैकी भी भेंट की थी। यह सीतामढ़ी की विशिष्टता ही है कि यहां लोगों को मेले में घूमने के साथ तीर्थाटन का लाभ भी मिल जाता है। इसे हम लोकजीवन को स्फूर्ति देने वाले ऐसे जनसम्पर्क के रूप में देख सकते हैं, जो पारस्परिक संबंधों को जीवंत बनाता है।
सीतामढ़ी को हिंदू पौराणिक कथाओं और इतिहास में अति पवित्र स्थान के रूप में माना जाता है, जो किसी को भी त्रेतायुग में ले जाता है। सीतामढ़ी की पहचान विश्व के प्रमुख धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में है। यही कारण है कि देश विदेश से हजारों की संख्या में सीतामढ़ी और सीता से जुड़े स्थल को देखने पर्यटन आते हैं। इस जिले की उत्तरी सीमा पड़ोसी देश नेपाल की सीमा से जुड़ी हुई है। सांस्कृतिक विविधता से रंगारंग संपूर्ण क्षेत्र में आनंद की ऐसी अनुभूति होती है कि मन करता है बस यहीं के हो कर रह जाएं। पौराणिक काल के इतिहास और भूगोल का विश्लेषण किया जाए तो सीतामढ़ी जिला और आसपास के क्षेत्रों में रामायण और महाभारत काल के प्रसंगों से जुड़े कई ऐसे स्थल हैं, जो पर्यटकों तथा शोधकर्ताओं का ध्यानाकर्षण करते हैं।

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जानकी मंदिर

सीतामढ़ी रेलवे स्टेशन से दो किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम छोर पर अस्थित जानकी स्थान जगत जननी जानकी की प्राकट्य स्थली होने के कारण विख्यात है। यहां एक सुन्दर सरोवर है, जहां राजा जनक के हल की नोक से टूटे घड़े से सीता का जन्म हुआ था। किंवदन्ती के अनुसार आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व यहां सघन वन था। अयोध्या के एक साधु बीरबल दास को यह अन्तःप्रेरणा मिली थी कि इस जगह माता सीता की मूर्ति है, जो राजा जनक द्वारा पुत्री की स्मृति में गड़वाई गई थी। आंतरिक उन्मेष से प्रेरित होकर साधु बीरबल दास सीतामढ़ी आये और उन्हांेने उस स्थल को खुदवाया। इस क्रम में जमीन के अंदर से एक मूर्ति मिली। उन्होंने खुदाई के बाद प्राप्त उस मूर्ति के प्रतिष्ठापन क्रम में इस स्थान पर एक मंदिर बनवाया। यही मंदिर आज जानकी मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसके विशेष कक्ष का पुनर्निर्माण स्व. राधा देवी धानुका की पुण्यस्मृति में कराया गया है। यहां मां जानकी व भगवान श्रीरामचन्द्र की भव्य प्रतिमाओं के साथ साथ भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न की मूर्तियां भी मौजूद हैं। जानकी मंदिर के कक्ष के बाहर भगवान शिव का मंदिर है जिसे दूर से देखा जा सकता है। बरसात का पानी यहां इस तरह भर जाता है मानांे स्वर्ग से उतरती हुई गंगा शिवजी की जटा से छलक पड़ी हों और वहीं उनका उद्गम हुआ हो। जानकी मंदिर का रजत द्वार देखते ही बनता है। इस द्वार का निर्माण टीकमगढ़ की महारानी ने करवाया था। टीकमगढ़ की महारानी द्वारा निर्मित करवाया गया जनकपुर (नेपाल) का नौलखा मंदिर अपनी अद्वितीय निर्माण कला के लिये नेपाल ही नहीं पूरे भारत में विख्यात है। समय के साथ जानकी मंदिर की संरचना में भी परिवर्तन होता आया है।

दक्षिण मुखी संकट मोचन हनुमान मंदिर

शहर के मध्य पुरानी बाजार में दक्षिण मुखी संकट मोचन हनुमान मंदिर स्थापित है। मूर्ति की स्थापना 1860 ई. में हुई थी। धार्मिक दृष्टिकोण से मंदिर का काफी महत्व है। जनश्रुति है कि अयोध्या के एक संत को रात में हनुमान जी ने स्वप्न में दर्शन दिया और उनसे कहा कि सीतामढ़ी के एक संत अयोध्या आए हुए हैं। उनकी मूर्ति को मां सीता की जन्मभूमि में स्थापित करने के लिए उस संत को दे दो। हनुमान जी के आदेश को मानते हुए अयोध्या के संत ने सीतामढ़ी के महात्मा बलदेव शर्मा को वह मूर्ति दे दी। महात्मा ने मूर्ति को सीतामढ़ी में स्थापित किया। मंदिर की ख्याति दिन प्रतिदिन बढ़ती ही गई। कहा जाता है कि मंदिर में बैठकर राम नाम के जाप तथा हनुमान चालीसा व सुन्दरकाण्ड का पाठ करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। मंगलवार और शनिवार को सैकड़ों महिलाएं व पुरुष श्रद्धालु दर्शनार्थ मंदिर में आते हैं। वर्तमान में बलदेव शर्मा के वंशज तेजपाल शर्मा व लक्ष्मीकांत शर्मा सेवादार हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘सेवैत’ भी कहा जाता है। नगर के मध्य भाग में स्थित दक्षिणमुखी श्री हनुमान जी का मंदिर सिद्धपीठ के रूप में सम्पूर्ण भारत तथा नेपाल के भक्तों की अटूट आस्था का केन्द्र है। इस मंदिर के संबंध में यह विश्वास प्रचलित है कि यहां मांगी गई मनौतियां श्री हनुमत् कृपा से निश्चय ही पूर्ण होती है। प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में दर्शनार्थी यहां अपनी मनोकामना लेकर आते हैं। कहा जाता है कि देश में एकमात्र दक्षिणमुखी हनुमान मंदिर यहीं पर है।

श्री जानकी-विलास मंदिर

नगर के गुदड़ी रोड पर स्थित यह मंदिर ‘जानकी विलास मंदिर’ के नाम से जाना जाता है। इसे स्व. रामविलास जी ने निर्मित करवाया था। इसमें सीता-राम, लक्ष्मण और हनुमानजी की मूर्तियां प्रतिष्ठापित हैं। देवालय के पाश्र्व में शिव-पार्वती तथा गोस्वामी तुलसीदास जी की भी प्रतिमाएं स्थापित हैं। यह मंदिर मर्मरी वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। इसकी बनावट जैन वास्तुकला से भी प्रभावित है। यहां चैकोर मर्मरी पटों पर सम्पूर्ण मूल ‘वाल्मीकि रामायण’ अंकित है।

(एलपी सिन्हा)

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