क्या है असम-मिजोरम सीमा विवाद? क्यों मारे गए अपने ही जवान?

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नयी दिल्ली : असम और मिजोरम के बीच सीमा विवाद ने सोमवार को हिंसक रूप ले लिया। दोनों तरफ की पुलिस और आम नागरिकों के बीच गोलीबारी में असम पुलिस के छह जवान शहीद हो गए जबकि 80 घायल हैं। आइये जानते हैं कि सामरिक महत्व वाले और जिस मिजोरम की पुलिस पर असम पुलिस पर हमले का आरोप लग रहा है, वह मिजोरम कभी असम का एक जिला रहे मिजोरम और असम के बीच क्या है सीमा विवाद।

असम—मिजोरम के बीच वर्षों पुराना सीमा विवाद

असम के साथ मिजोरम की 164.6 किमी की सीमा लगती है। मिजोरम 1873 के बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेग्युलेशन के तहत 1,318 वर्ग किमी इनर लाइन रिजर्व फॉरेस्ट पर दावा करता है। जबकि असम 1933 में सर्वे ऑफ इंडिया की तरफ से तैयार नक्शे और खींची गई सीमा रेखा को मानता है। दोनों राज्यों के बीच का यह विवाद खत्म करने के लिए वर्ष 1995 से कई दौर की बातचीत हुई लेकिन सब बेनतीजा रहे।

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अगस्त 2020 में दोनों के बीच सीमा विवाद ने गंभीर रूप ले लिया। तब असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर मामले में दखल की मांग की। उस वक्त तनाव कुछ हद तक खत्म हो गए थे, लेकिन दोनों राज्य लगातार एक-दूसरे पर सीमा का अतिक्रमण करने का आरोप लगाता रहे। यही विवाद पिछले दिन हिंसक रूप में सामने आया।

वर्ष 1875 का नोटिफिकेशन झगड़े की बुनियाद

सीमा विवाद की मुख्य वजह वर्ष 1875 का वह नोटिफिकेशन है जिसके तहत अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और नागालैंड के कुछ जिलों को आदिवासियों के लिए संरक्षित घोषित किया गया था और जहां प्रदेश से बाहर के किसी भी व्यक्ति को प्रवेश के लिए इनर लाइन परमिट सिस्टम लागू किया गया। यह नोटिफिकेशन 27 अगस्त, 1873 को बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेग्युलेशन के तहत जारी किया गया था। तत्कालीन अंग्रेज शासकों ने इस रेग्युलेशन के तहत आदिवासी आबादी वाले पहाड़ी इलाकों को मैदानी इलाकों से अलग कर दिया। व्यवस्था की गई कि स्थानीय प्रशासन जिसे परमिशन देगा, वही पहाड़ी क्षेत्रों में प्रवेश कर सकता है।

इन जिलों में प्रवेश के लिए अनुमति जरूरी

बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेग्युलेशन के तहत कामरूप, दारंग, नोवगोंग, सिबसागर, लखिमपुर (गारो हिल्स), खासी और जनता हिल्स, नागा हिल्स, चाचर जैसे जिलों को आदिवासियों के लिए संरक्षित घोषित कर दिया गया। कहा गया कि इन जिलों बिना पास के प्रवेश करने वालों को जेल की सजा या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा। 1873 के रेग्युलेशन में दर्ज जिलों में जाने से ब्रिटिश अधिकारियों और नागरिकों को जाने से रोका गया था। वर्ष 1950 में जब भारत का संविधान लागू हुआ तो ‘ब्रिटिश नागरिकों’ को ‘भारतीय नागरिकों’ से बदल दिया गया। यानी, जहां ब्रिटिश नागरिकों को जाने की मनाही थी, वहां अब भारतीय नागरिकों को जाने से रोकने का प्रावधान कर दिया गया। नियम के तहत आदिवासी इलाकों में पहुंचते ही कुछ शर्तें माननी होंगी। मसलन, हाथी दांत, रबर आदि जंगल के किसी भी उत्पाद को हाथ नहीं लगाना होगा। वहां अपने साथ किताब, डायरी, नक्शा आदि नहीं ले जाना होगा, साथ ही वहां की तस्वीर लेने पर भी रोक है। यह रेग्युलेशन जिले से बाहर के किसी भी व्यक्ति को वहां बसने या जमीन खरीदने का अधिकार नहीं देता है।

जानें क्यों लगाई गई थी प्रवेश वाली शर्तें

दरअसल इन शर्तों का मुख्य मकसद आदिवासी संस्कृति को संरक्षित रखना था। अंग्रेज उस जमाने में आदिवासी इलाकों में चले जाते थे। पहाड़ी क्षेत्रों में अंग्रेजों के जाने का दो मकसद होता था- एक तो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, दूसरा आदिवासियों का धर्म परिवर्तन। इसलिए, बीईएफआर में इन दोनों गतिविधियों पर रोक लगाने के स्पष्ट प्रवाधान किए गए हैं। रेग्युलेशन में एक तरफ जंगली उत्पादों को हाथ लगाने से रोकने की व्यवस्था करता है तो दूसरी तरफ आदिवासियों को धार्मिक-सांस्कृतिक रूप से प्रभावित करने की किसी भी कोशिश के लिए भी दंड की व्यवस्था करता है।

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