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शेरनी: पर्दे पर जंगल की जटिलता

सिनेमा को सरोकार आधारित होने की एक महत्वपूर्ण शर्त है कि वह लगातार अपना दायरा बढ़ाए। विद्या बालन की हालिया फिल्म ’शेरनी’ इस शर्त को पूरा करने हुए जल-जंगल-जमीन जैसे अति महत्वपूर्ण विषय को रेखांकित करती है। पारिस्थितिकी तंत्र से लेकर पितृसत्तात्मक मानसिकता तक को इस फिल्म ने उद्घाटित किया है। ’शेरनी’ शीर्षक देखकर किसी को लगता होगा कि इस फिल्म में हीरोइन लार्जर दैन लाइफ स्टाइल में किसी आदमखोर जानवर का शिकार करेगी, तो उन्हें निराशा हाथ लगेगी। यह फिल्म उस सोच से कहीं अधिक बड़ी है।

विद्या विंसेंट (विद्या बालन) वन अधिकारी (डीएफओ) के रूप में पोस्टेड हैं। क्षेत्र में आदमखोर शेरनी (बाघिन) के होने की अफवाह के बाद उसे पकड़ने की तैयारी है। दबाव बढ़ने के बाद वन विभाग द्वारा रंजन राजहंस उर्फ पिंटू भैया (शरत सक्सेना) को बुलाती है, तो शेरनी से छुटकारा दिलाते हैं। 2018 में महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में शूटर असगर अली द्वारा मारी गई बाघिन अवनी (टी1) की घटना से यह फिल्म प्रेरित है। अवनी के मारे जाने के बाद बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने विभाग को फटकार भी लगाई थी, जिसके बाद सरकार ने बाघिन की मौत की जांच के लिए कमिटि गठित की थी। फिल्म में पिंटू भैया का किरदार असगर अली से प्रेरित है। हालांकि फिल्म के आरंभ में ही निर्माता ने इस फिल्म के पूर्णतः काल्पनिक होने का वादा किया है।

प्रतिभाशाली निर्देशक अमित मसूरकर ने ’शेरनी’ में कई मुद्दों को एक साथ उसाधने की कोशिश की है। कुछ में सफल भी हुए हैं। शीर्षक ’शेरनी’ उस टी12 नाम की बाघिन के लिए है, साथ ही मुख्य पात्र विद्या विंसेंट की कर्मठता व जीवटता को भी यह शीर्षक न्यायोचित ठहराता है। बाघिन से डर मुख्य कथानक है। इसके साथ-साथ स्थानीय राजनीति के कारण वन विभाग के कामों में अड़चन, विभाग के कर्मियों में ’सिर्फ नौकरी’ करने की मानसिकता, कानून के पालन के लिए स्थानीय लोगों की आवश्यकताओं को ताक पर रखना, महिला अधिकारी को लेकर पूर्वाग्रह, सामाजिक-राजनीतिक व प्रशासनिक टकराव में पारिस्थितिकी को नुकसान आदि जैसे कई संवेदनशील बिंदुओं को ’शेरनी’ स्पर्श करती है। कई मुद्दों को एक साथ साधने में ही केंद्रीय विषय में भटकाव आया है।

मसूरकर ने अपनी पिछली फिल्म ’न्यूटन’ में भी जंगल की जटिलता को फिल्माया था। ’शेरनी’ में भी जंगल की जटिलता परिलक्षित होती है। जंगल की जटिलता के अलावा मानव जनित जटिलताओं की भी यह फिल्म पड़ताल करती है। जैसे घरेलू पशुओं के चरने वाली जमीन पर राजनीतिक लोगों का कब्जा होने से ग्रामीण घने जंगलों में अपने मवेशियों को ले जाने के लिए मजबूर हैं। उधर, एक जंगल से दूसरे जंगल तक जाने वाले मार्ग पर हाइवे निर्माण व खनन होने से जंगली जानवर मानव बस्ती से गुजरने को मजबूर हैं। इन मजबूरियों ने स्थानीय इकोसिस्टम का संतुलन बिगाड़ा है। तीसरी मजबूरी विद्या विंसेंट जैसी निष्ठावान अधिकारी की है, जिन्हें नेता व स्वयं उनका विभाग उनके काम में रुकावट उत्पन्न करता है। वन के नैसर्गिक सौंदर्य के साथ फिल्मकार ने इन जटिलताओं को भी कथानक का अंग बनाकर सरल रूप में प्रस्तुत किया है।

विद्या बालन ने डीएफओ के किरदार को पूरी सहलता के साथ, बिना किसी अनावश्यक नाटकीयता के, निभाया है। एकदम एफर्टलेस। दबाव, चुनौती, आक्रोश, साहस के भावों को एक साथ व्यक्त कर देना, यही विद्या की विशेषता है। शरत सक्सेना ने अनुभव का इस्तेमाल कर पिंटू भैया के पात्र को नुकीला बनाया है। ब्रिजेंद्र कला व नीरज कबि अपनी जगह ठीक हैं। इला अरुण को विद्या की सास के रूप में देखना सुखद है। गैंग्स आॅफ वासेपुर के जेपी सिंह फेम अभिनेता सत्यकाम आनंद पूर्व विधायक पीके की भूमिका में जंचे हैं। उन्हें लंबे किरदार मिलना चाहिए।

सिनेमैटोग्राफर राकेश हरिदास ने मध्यप्रदेश के जंगलों की खूबसूरती को अपने कैमरे से बखूबी फिल्माया है। फिल्म ओटीटी पर आई है, जहां 6 इंच के मोबाइल स्क्रीन में जंगल की खूबसूरती नहीं दिखेगी। ऐसी ही फिल्मों के लिए बड़ा पर्दा बना है। जहां दोपहर में जंगल का अंधेरा, घने वृक्ष, हवाओं से पतों का हिलना, जंगल के बीच बहती नदिका, विचरते पशु, उड़ते पक्षी, यह सब इस फिल्म में है, जो सिनेमाघर में प्रभावी ढंग से दिख पाता।