सम्पूर्ण सृष्टि पर भारी पड़ रहा यह विकास- दीपक कुमार सिंह

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बचपन में इतिहास की किताबों में पढ़ते थे कि किस तरह सालों पहले फ्लू और प्लेग जैसी महामारियों से लाखों लोग मरे। आपदा की उन डराने वाली स्मृतियों के बीच हम मानते थे कि यह उन बीते दिनों की बात है, जब हम पिछड़े थे। हम मुगालते में थे कि विकसित वैज्ञानिक तकनीक के चलते अब ऐसी सूरत कभी नहीं आ सकती। लेकिन तभी कोविड महामारी आई और हमारी तमाम खुशफहमियों को इसने रौंद डाला।

यह सिर्फ अपने मुल्क की बात नहीं है। यही दशा हर मुल्क में दिखी। जिन देशों को हम जीडीपी, तकनीक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे मानकों पर विकसित मानते हैं, वहां भी यही तस्वीर है। उन समाजों में भी मौत की आंधी चली, जहां विकास का मानक बुलेट ट्रेन और रियल टाइम वायरलेस कनेक्टिविटी है। अमेरिका, यूरोप जैसे विकसित इलाके हों या अफ्रीका और एशिया के पिछड़े माने जाने वाले देश, कोविड के सामने सब पस्त हो गए। सड़क पर भटकते मरीज, अस्पतालों में बेड की कमी, ऑक्सिजन और दवा के अभाव में मरते लोग, यह तस्वीर हमारे विकास के मानक पर गंभीर सवाल खड़े कर रही है। हमने विकास के नाम पर जो सफर तय किया, क्या वह वास्तव में हमारे अनुकूल था?

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मानव अहं इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा है कि विकास के नाम पर अब तक हम गलत रास्ते पर थे। यही वजह है कि अभी भी सच से मुंह मोड़ने और हकीकत से दूर भागने के लिए कई तरह के तर्क दे रहे हैं। हम अपनी गलती छिपाने के लिए दलील देते हैं कि महामारी आने के एक साल के अंदर हमने टीके बना लिए, जो इतनी जल्दी कभी नहीं बने। ठीक है कि हमने इसे कम समय में बनाया, लेकिन वायरस के भी म्यूटेंट बनते चले गए। अब हम इस संशय में हैं कि क्या ये टीके सारे म्यूटेंट्स पर काम करेंगे? वायरस हमारे इंटेलिजेंस की कड़ी परीक्षा ले रहा है।

यह हकीकत है कि 70 फीसदी से अधिक बीमारियां या प्राकृतिक आपदाएं इंसानी गलतियों का नतीजा हैं। हम पहले प्रकृति का नाश करते हैं, फिर नई महामारी आती है और तब हम दवा और टीका बनाते हैं, जिन्हें बनाने वाले लोग अकूत संपत्ति बनाते हैं। बात सिर्फ महामारी तक ही होती, तो भी गनीमत थी। हमने बेहतर उत्पादन के नाम पर पारंपरिक कृषि को नष्ट किया। इससे जब मिट्टी खराब हुई तो हमने खाद बनाई। ऐसे ही पीने के पानी को देखें तो पहले इसे दूषित किया, फिर मिनरल वॉटर रीपैकेज होकर सामने आ गया। हवा को प्रदूषित किया और आज बिना प्रदूषण वाली ताजा हवा भी बाजार में बिक रही है। यह सब हमने अपनी आंखों के सामने होते देखा और इस अपराध के भागी बने।

हालांकि मानव का अहंकार इससे मुकरता रहा कि उसकी करनी का नतीजा केवल महामारी ही नहीं, विनाशकारी बाढ़, मरती नदियां, पिघलते ग्लेशियर भी हैं। हमने संपत्ति का निर्माण प्रकृति का संतुलन बिगाड़ने की कीमत पर किया और प्रति व्यक्ति आमदनी, नई तकनीक, नए उत्पाद के नाम पर विनाश की राह पर चलते रहे। महामारी के दौरान परिवारों के बिछड़ने की दर्दनाक तस्वीरें, अंतिम संस्कार के लिए लगी लंबी कतारें, इलाज के लिए गिड़गिड़ाते लोगों की तस्वीरें, अमीर से अमीर लोगों का गरीबों की तरह ही महामारी के आगे समर्पण, ऑक्सिजन के एक-एक कतरे के लिए तरसते लोगों की भीड़ ने हमें इस अंधी दौड़ के औचित्य और प्रासंगिकता पर गंभीरता से सोचने को मजबूर कर दिया है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि जब वायरस का प्रकोप कम हो जाएगा और हम इसके मौजूदा भय से बाहर निकल जाएंगे तो फिर उसी अहं और विकास की अंधी दौड़ में मगशूल हो जाएंगे? महामारी से मिली सीख के बाद सभी को ठहरकर इस दौड़ का मूल्यांकन करना चाहिए। विकास जरूरी है, लेकिन किस कीमत पर, हमें इस तथ्य को समझना चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि जिस रास्ते को हम विकास पथ समझ बैठे थे, कहीं वह हाराकीरी का रास्ता तो नहीं।

लेखक बिहार के सीनियर आईएएस अधिकारी हैं

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