पटना : विश्व पृथ्वी दिवस पर आयोजित संवाद कार्यक्रम का शुभारंभ करते राज्य सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग के प्रधान सचिव दीपक कुमार सिंह ने कहा कि पर्यावरण को दांव पर लगाकर विकास की अवधारणा को बदलने आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि हमारी परंपरा प्रकृति की रक्षा करते हुये जीवन व्यतीत करने की रही है, लेकिन पिछले कुछ दशक में हमने विकास के नाम पर प्रकृति के साथ ज्यादती की और नतीजा सामने है।
इस क्रम में ऑक्सीजन की किल्लत को लेकर मचे शोर का उल्लेख करते हुये उन्होंने कहा कि प्रकृति द्वारा दिये जाने वाले अनमोल उपहार को समझना होगा। ऐसे में समाज को अपने भविष्य की चिंता करते हुये जल, जंगल और जैवविविधता आदि के महत्व को समझकर अपने व्यवहार मे बदलाव लाने की जरूरत है।
प्रधान सचिव ने कहा कि प्रकृति का विनाश कर उसे दोबारा पुनर्जीवित करना कठिन ही नहीं नामुमकिन कार्य है, ऐसे में समाज को प्रकृति के अनुकूल व्यवहार कर बुद्धिमानी का परिचय देना आवश्यक है।
पानी रे पानी अभियान द्वारा आयोजित संवाद कार्यक्रम का विषय ‘ करोना संकट के बीच पर्यावरणीय चिंता’ रखा गया था। संवाद में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड के कई पर्यावरणविदों के अलावा राज्यभर के सैंकड़ों पर्यावरण और पानी के मसले पर कार्य करने वाले सैकड़ों की संख्या मे कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों ने भाग लिया। इस अवसर पर अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ में पर्यावरण विज्ञान के संकाय सदस्य डॉ. वेंकटेश दत्ता ने नदी प्रणालियों और भूजल की निरंतरता पर अपने कार्यानुभव को साझा करते हुये कहा कि प्राकृतिक संसाधनों को पुनर्जीवित करने का काम धैर्य का है और इसके लिये समय देना आवश्यक है।
इसके पूर्व पानी रे पानी अभियान के संयोजक पंकज मालवीय ने संवाद में भाग ले रहे विशेषज्ञों से परिचय कराते हुये कहा कि पृथ्वी की सुंदरता के लिये सामाजिक भागीदारी से ही कोई कार्य संभव है। करोना महामारी की चर्चा करते हुये उन्होंने कहा कि प्रकृति की एक छोटी सी कृति है मानव, लेकिन इसने अपने व्यवहार से अपने निर्माणकर्ता को ही परेशान कर दिया। ऐसे में मानव के भोगवादी प्रवृति से परेशान और बीमार प्रकृति ने थक-हार कर अपने आराम का रास्ता ढूंढ ही लिया। क्योंकि लालची मानव तो विकास के नाम पर उसके शोषण को रोकने नहीं जा रहा था। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने वालों “करोना” एक चेतावनी है।
इसके अलावा भोपाल के भूजल विशेषज्ञ के.जी. व्यास और नदी विशेषज्ञ दिनेश मिश्र ने भी संबोधित किया। वक्ताओं ने कहा कि दुर्भाग्य है कि जैसे-जैसे समाज ज्यादा उन्नत, विकसित और तकनीकी-प्रेमी होता गया, अपनी परंपराओं को बिसरा बैठा। पहले-पहल तो लगा कि पानी पाईप के जरिए घर तक नल से आएगा, खेत में जमीन को छेद कर रोपे गए नलकूप से आएगा, लेकिन जब ये सब ‘चमत्कारी उपाय’ फीके होते गए तो मजबूरी में पीछे पलट कर देखना पड़ा। शायद समाज इतनी दूर निकल आया है कि अतीत की समृद्ध परंपराओं के पद-चिन्ह भी नहीं मिल रहे।