बिहार विधानसभा भवन के सौ साल : विधायी गरिमा का गवाह

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रोमन शैली की झलक समेटे बिहार विधान सभा भवन ने अपने सौ साल के सफर में अपने कंगूरे पर आजादी के बाद जहां तिरंगे को लहराते देखा है वहीं कई सरकारें, कई मुख्यमंत्री, कई विधानसभा अध्यक्ष भी देखे हैं। आजादी के बाद सत्रहवीं विधानसभा आते-आते हजारों की संख्या में नए-पुराने सदस्यों को इसने आते-जाते देखा है। एक समृद्ध विधायी इतिहास का गवाह यह भवन सौ साल की यादों को समेटे हुए है।

बिहार विधानसभा का सौ साला भवन बिहार की विधायी गरिमा का महत्वपूर्ण गवाह है। वर्ष 1920 बिहार और बिहार की विधायिका के इतिहास में खास महत्व रखता है। इसी वर्ष ‘बिहार एवं उड़ीसा’ को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला एवं राज्यपाल की नियुक्ति हुई। यही नहीं इसी साल बिहार विधानमंडल के मुख्य भवन का निर्माण कार्य भी पूरा हुआ। 07 फरवरी, 2021 बिहार की विधायिका व कार्यपालिका ने अपने भवन में कार्य करना शुरू कर दिया। इस दृष्टि से बिहार 7 फरवरी 2021 से व्यावहारिक रूप से एक क्रियाशील राज्य बना। इस प्रकार बिहार को पूर्ण राज्य बने इसी दिन को 100 साल पूरे हो गए।

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जब इसे सौ साल पहले गवर्नर्स स्टेट का दर्जा मिला था। उप राज्यपाल की जगह राज्यपाल की नियुक्ति की गई और लॉर्ड सत्येन्द्र प्रसन्नो सिन्हा बिहार के पहले राज्यपाल बने थे। उन्होंने 7 फरवरी 1921 को सर वाल्ट मोरे की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई नवगठित बिहार एवं उड़ीसा प्रांतीय परिषद की पहली बैठक को इसी नए भवन में संबोधित किया था।

ऐतिहासिक विधेयक पारित

आजादी के तत्काल बाद 1947 में ही पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में भूमिहीन गरीबों के लिए ‘बिहार राज्य वास भूमि अधिनियम’ बना जो पूरे देश में आज भी मिसाल है। फिर 1950 में बिहार भूमि सुधार अधिनियम’ यानी जमींदारी उन्मूलन कानून पारित हुआ। यह देश में पहली बार बिहार में हुआ। इसके अलावा महिलाओं को आरक्षण के लिए ‘बिहार पंचायती राज अधिनियम, 2006’ बना। इसके तहत महिलाओं को पंचायतों में 50 फीसदी आरक्षण दिया गया। पूर्ण शराबबंदी कानून के लिए 30 मार्च 2016 को शराबबंदी कानून बना। सारे सदस्यों ने अपने स्थान पर खड़े होकर कानून को सफल बनाने का संकल्प लिया। इस सदन के विधायकों का सामूहिक रक्तदान भी सदन के इतिहास का यादगार लम्हा है। विधायकों द्वारा 2 अप्रैल 2016 को सामूहिक रक्तदान किया गया और इसे पीएमसीएच को गरीबों के उपचार के लिए उपलब्ध कराया।

भड़कती दुनिया व परिवर्तनशील परिवेश के मद्देनजर जलवायु परिवर्तन पर विमर्श भी सदन के इतिहास में अविस्मरणीय रहेगा। दोनों सदनों के सदस्यों ने जलवायु परिवर्तन के वैश्विक मुद्दे पर विमर्श किया। परिणामस्वरुप बिहार में चल रहे जल जीवन हरियाली कार्यक्रम आज पूरे देश के लिए मिसाल बना हुआ है।

इसके पहले 18वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजी शासन के दौरान बिहार का भू-भाग बंगाल प्रेसीडेंसी का अंग था। लेकिन, बिहार के लोग अपनी सक्रियता व कर्मठता के बल पर अलग पहचान हासिल करने में सफल रहे। इस दौरान बिहार को बंगाल से अलग करने की मांग लगातार उठती रही। इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण दिन 12 दिसंबर 1911 था, जब ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम ने दिल्ली दरबार में बिहार और उड़ीसा को मिलाकर बंगाल से अलग एक राज्य बनाने की घोषणा की गई थी। सर चार्ल्स स्टुअर्ट बेली इस नए राज्य के पहले उप राज्यपाल बने।

22 मार्च 1912 को ‘बिहार एवं उड़ीसा’ राज्य के अस्तित्व में आने के बाद नये राज्य की विधायिका के रूप में 43 सदस्यीय विधायी परिषद का गठन किया गया था। इसमें 24 सदस्य निर्वाचित थे और 19 सदस्य उप राज्यपाल द्वारा मनोनीत थे। इसका मुख्यालय पटना निर्धारित हुआ। बंगाल से अलग होकर बिहार एवं उड़ीसा राज्य अस्तित्व में आए इस नए राज्य के विधायी प्राधिकार के रूप में 43 सदस्यीय विधान परिषद का गठन किया गया। यही परिषद संख्या बल में परिवर्तनों से गुजरते हुए 243 सदस्यों के साथ आज बिहार विधानसभा के रूप में हम सबके सामने है। इस विधायी परिषद की पहली बैठक 20 जनवरी 1913 को बांकीपुर स्थित पटना कॉलेज के सभागार में हुई थी।

प्रांतों में नई शासन व्यवस्था लागू होने के तत्काल बाद ही प्रांतीय विधायी परिषद को अधिक अधिकार देने की मांग उठने लगी। तब महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता की लड़ाई भी जोर पकड़ रही थी। भारत में चल रहे आंदोलन के दबाव में ब्रिटिश संसद द्वारा ‘भारत सरकार अधिनियम 1935’ पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत बिहार एवं उड़ीसा अलग-अलग स्वतंत्र प्रदेश के रूप में अस्तित्व में आए। प्रांतीय स्वायत्तता की शुरुआत भी इसी अधिनियम से हुई। इसी अधिनियम के महत्वपूर्ण प्रावधान के रूप में कई प्रांतों में द्विसदनीय विधायिका बनी। बिहार में निम्न सदन के रूप में विधानसभा एवं उच्च सदन के रूप में विधान परिषद का गठन हुआ।

द्विसदनीय विधायिका की शुरुआत के बाद बिहार में पूर्व से कार्यरत विधायी परिषद का नामाकरण बिहार विधानसभा के रूप में किया गया, जबकि एक अलग उच्च व समीक्षात्मक सदन के रूप में बिहार विधानपरिषद का गठन किया गया। इस प्रकार विधान परिषद अस्तित्व में आया। विधानसभा कक्ष के उत्तर में उसी भवन में निर्मित नये सदन कक्ष में 30 सदस्यीय विधानपरिषद की पहली बैठक राजीव रंजन प्रसाद की अध्यक्षता में 22 जुलाई 1936 को सम्पन्न हुई थी। आज भी विधान परिषद की बैठकें उसी कक्ष में होती आ रही हैं। संविधान लागू होने के बाद परिषद में सदस्यों की संख्या 72 कर दी गई। वर्ष 1958 में यह बढ़कर 96 हो गई। वहीं बिहार के बंटवारे के बाद वर्ष 2000 में सदस्यों की संख्या घटकर 75 रह गई है।

बिहार विधान सभा भवन अपने सौ साल के गरिमापूर्ण सफर में न केवल बिहार में विधान के शासन को स्थापित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है बल्कि आजादी के बाद लोकतंत्र को मजबूत करने व जनता की आवाज को मुखर करने में भी अपनी सार्थकता को साबित किया है। सभा भवन के सौ साल के इतिहास के लाखों पन्ने भविष्य में भी लोकतंत्र के आधार स्तंभ बने रहेंगे।

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