प्रकृति और मानव दो नहीं, एक ही पारिस्थितिकी के अंग

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विकास के नाम पर मुख्यधारा से दूर होती गंगा
अजीत ओझा
उद्यमी एवं समाजसेवी

फरवरी के बाद जब सर्दियां समाप्त होती हैं और गर्मी की आहट होने लगती है, तो मीडिया में वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) और जलसंकट से संबंधित खबरें आने लगती हैं। इस महीने वैश्विक तपन पर एक रिपोर्ट पढ़ते हुए मुझे 2019 की गर्मी में बिहार की भयावह घटना याद आ गई। मुंबई में रहते हुए भी अपने गृहराज्य की खबरें देख लेता हूं। उस साल जून महीने में दो खबरें थीं। एक चमकी बुखार से बच्चों के मरने की खबर और दूसरी मगध क्षेत्र में गर्मी व लू से दो दिन के अंदर ही दो सौ लोगों के मरने की खबर। अब तक सुनता आया था कि ठंड लगने से हर साल लोग मरते हैं। अब गर्मी से मरने लगे हैं। 2020 की गर्मी तो लाॅकडाउन में गुजर गई। लेकिन, 2021 को लेकर अभी से सचेत होना होगा।

एक खबर आई कि गर्मी ने लोगों की जान ले ली। लेकिन, गौर से सोचने पर हम पाएंगे कि हमारी नादानी व सरकार की लापरवाही के कारण इतने लोग मारे गए। पिछले कुछ वर्षों में विकास व शहरीकरण के नाम पर वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हुई। सौ साल पुराने पेड़ों को बेरहमी से काटा गया। जलक्षेत्र में इमारत खड़ी की गई। नदी को बर्बाद करने की हद तक बालू उत्खनन किया गया। जब प्रकृति के दोहन की सारी मर्यादाएं पार हो गईं, तो न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। पेड़ काटने का दुष्प्रभाव अत्यधिक गर्मी के रूप में सामने आया। सड़कों पर चलते लोग झुलसकर मरने लगे। एक ही दिन की बारिश में शहर नरक हो जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।

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भूमि को अपनी माता समझने वाले भारतीय प्रकृति के शत्रु कैसे हो गए? भोगवादी संस्कृति के पनपने से हम प्रकृति के प्रति संवेदहीन हो गए हैं। प्रकृति और मानव दो नहीं हैं। एक ही पारिस्थितिकी के अंग हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय अपने एकात्म मानववाद के दर्शन में इसी बात को रेखांकित करते हैं। अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका आदि का कई बार भ्रमण करने के बाद मैं यह कह सकता हूं कि यही दर्शन आने वाले समय में ग्लोबल सस्टेनेबल डेवलपमेंट का आधार बनेगा। व्यष्टि यानी अकेला व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं के लिए समष्टि यानी समाज के अन्य लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है। फिर इस पूरे मानव समाज को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सृष्टि यानी प्रकृति पर निर्भर रहना पड़ता है। इस तरह से व्यष्टि, समष्टि व सृष्टि ही एकात्म मानववाद के मूल में है। यह पृथ्वी के हरेक प्राणी की चिंता करने वाला चिंतन है।

हमें फिर से एक ठोस पहल करनी होगी, ताकि लोगों के मन में प्रकृति प्रेम प्रस्फुटित हो। इको-टूरिज्म इस कार्य में सहायक हो सकता है। सरकारी स्तर भी इसके लिए प्रयास हो रहे हैं। हमारे आसपास ही प्रकृति के इतने अनमोल धरोहर बिखरे पड़े हैं। लेकिन, जानकारी के अभाव में हमारी नजर उन पर नहीं जा पाती है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को इको-टूरिज्म से परिचित कराएं, ताकि आने वाला समय प्रकृति से प्रेम करने वाले लोगों का हो।

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