बिहार में भूपेंद्र यादव के मिशन को पूरा करने के लिए चिराग अपने बंगले को बचाने में असफल होते दिख रहे हैं। जिस तरह चिराग ने नीतीश की रीढ़ की हड्डी को कमजोर किया है, उसी तरह भूपेंद्र यादव के चंगुल में फंसकर चिराग कमजोर होते जा रहे हैं। लोजपा सुप्रीमो इन दिनों कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। इनमें से सबसे सबसे बड़ी चुनौती है पार्टी को एकजुट रखने का।
खुद के निर्णय में उलझे चिराग
चुनाव परिणाम आने के बाद चिराग के नेतृत्व में सुरक्षित भविष्य नहीं देखने वाले नेता कांग्रेस व जदयू में जाना शुरू कर दिया है। जनवरी में लोजपा के कई नाराज नेताओं ने कांग्रेस का दामन थामा, तो 18 फरवरी को केशव सिंह के नेतृत्व में 200 से अधिक कार्यकर्त्ता जदयू में शामिल हुए। इस सवाल के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या चिराग को इस टूट का अंदाजा नहीं था। इसका जवाब यह है कि चिराग चुनाव परिणाम आने के बाद संगठन की नाराजगी को भांपते हुए दिसंबर में लोजपा की प्रदेश कार्यसमिति को भंग कर दिया था। सभी प्रकोष्ठों को भंग करने के बाद यह कहा जा रहा है कि संगठन के अंदर नारजगी को कम करने के लिए चिराग ने ऐसा किया है। लेकिन, ढाई महीने बीतने के बाद अभी तक बात बनती नहीं दिख रही है।
चर्चाओं की मानें तो लोजपा इस बार प्रदेश अध्यक्ष परिवार के बाहर के लोगों को बनाना चाहती है। चिराग प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर भूमिहार, राजपूत या कुशवाहा चेहरे की तलाश में हैं। फिलहाल प्रदेश अध्यक्ष चिराग के भाई प्रिंस राज हैं, जो समस्तीपुर से सांसद हैं। वहीं, यह भी कहा जा रहा है कि प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति में देरी इसलिए हो रही है, क्योंकि प्रिंस राज को कोई अन्य जिम्मेदारी के लिए तैयार किया जा रहा है। लोजपा से जुड़ा एक तथ्य यह है कि बिहार विधानसभा चुनाव में लोजपा का सबसे शानदार प्रदर्शन 2005 में रहा, जब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुमित सिंह के पिता नरेंद्र सिंह थे। नरेंद्र सिंह के प्रदेश अध्यक्ष रहते, उस चुनाव में लोजपा के 29 विधायक जीते थे। लेकिन, राज्य में कोई सरकार नहीं बनते देख नरेन्द्र सिंह लोजपा के कई विधायकों के साथ जदयू में शामिल हो गए थे।
नीतीश के चक्रव्यूह में चिराग
मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर कहा जा रहा था कि भाजपा चिराग को साथ रखना चाह रही थी। लेकिन, नीतीश उन्हें साथ नहीं रखना चाहते थे। इसलिए नीतीश कुमार ने चिराग के विरोधी और उन्हीं के लोकसभा के अंतर्गत आने वाली विधानसभा चकाई के विधायक सुमित सिंह को अनौपचारिक रूप से पार्टी में शामिल कराकर उन्हें मंत्रिमंडल में जगह दी।
सुमित सिंह को इतना तव्वजो मिलने के बाद विभिन्न तरह की राजनीतिक चर्चाएं तेज हो गई है। यह कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार चिराग को उन्हीं के घर में घेरने की पूरी तैयारी कर दी है। नीतीश कुमार की पार्टी सुमित सिंह को खड़ा कर चिराग को जवाब देना चाहती है। इसलिए आए दिन जीतन राम मांझी से लेकर जदयू के तमाम नेता चिराग पर जमकर हमला बोल रहे हैं। वहीं, निर्दलीय विधायक होने के बावजूद सुमित सिंह को जदयू अपने कार्यक्रमों में बुलाकर मंच पर जगह दे रही है।
2005 में जिस तरह सुमित सिंह के पिता नरेंद्र सिंह ने रामविलास पासवान को राजनीतिक हैसियत बताते हुए नीतीश कुमार को मजबूत किये थे। वहीं, नीतीश कुमार नरेंद्र सिंह के बेटे को मजबूत कर चिराग पासवान को राजनीतिक हैसियत दिखाना चाह रहे हैं। जमुई में अगर सुमित सिंह की राजनैतिक हैसियत बढ़ती है, तो इसका सीधा नुकसान चिराग पासवान को होगा। वैसे नीतीश कुमार ने तो चिराग को उनके घर में घेरने की पूरी तैयारी कर दी है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि पीएम मोदी व भाजपा नेतृत्व चिराग को नीतीश के चक्रव्यूह से कैसे निकालती है।
क्या फिर से संकटमोचक बनेंगे सूरजभान
लोजपा नेता व नवादा से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए चंदन सिंह ने सीएम नीतीश से मुलाकात की थी। मुलाकात के बाद यह चर्चा जारी है कि क्या चिराग के नेतृत्व में सुरक्षित भविष्य नहीं देखने वाले नेता जदयू में जाना शुरू कर दिया है? हालांकि, इस मुलाकात को लेकर लोजपा नेताओं का कहना है कि यह औपचारिक मुलाकात थी। सांसद की मुख्यमंत्री से मुलाकात लोकसभा क्षेत्र में विकास योजनाओं को लेकर हुई है। लेकिन, इस तरह की राजनीतिक घटनाक्रम के बाद इस बात की भी चर्चा है कि लोजपा नेताओं को आभास हो गया है कि नीतीश के दवाब में अब भाजपा चिराग को साथ नहीं ले पाएगी। इसलिए अगर सरंक्षित होकर सुरक्षित राजनीति करनी है तो सत्ता की चैखट पर हाजिरी लगानी होगी।
वहीं, एक और अन्य थ्योरी यह है कि भूमिहार का जदयू से मोहभंग हो चुका है। इसलिए आरसीपी के नेतृत्व वाला जदयू भूमिहार को साथ लाने के लिए ललन सिंह से बड़े चेहरे की तलाश कर रहा है, क्योंकि इस बार के चुनाव में ललन सिंह को उन्हीं के समाज के लोगों ने उनको राजनीतिक हैसियत का अहसास करा दिया। ललन सिंह को जिन-जिन विधानसभा सीटों को जिम्मेदारी दी गई, वहां उनकी लुटिया डूब गई। वहीं, चिराग की पार्टी लोजपा के सूरजभान सिंह भूमिहारों को साथ लाने में सफल रहे। इसके अलावा अप्रत्यक्ष रूप से सूरजभान सिंह ने ही ललन सिंह को 2014 के चुनाव में हराया था। इसलिए आरसीपी ललन सिंह को कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ सकते हैं !
कभी-कभी अंदुरूनी बातें बाहर आने के बाद यह कहा जाता है कि सूरजभान सिंह व ललन सिंह के रिश्ते मैत्रीपूर्ण नहीं हैं। उसी तरह जदयू में ललन सिंह व आरसीपी के बीच मजबूत राजनीतिक संबंध नहीं है। इस लिहाज से आरसीपी के जदयू के लिए ललन सिंह से ज्यादा फायदेमंद सूरजभान सिंह हो सकते हैं।
हालांकि, लोजपा नेत्री व पूर्व सांसद वीणा देवी ने इस मुलाकात को लेकर कहा कि सांसद ने अस्पताल के कार्यक्रम को लेकर सीएम नीतीश से भेंट की थी। लेकिन, लोग इसे अन्यथा ले रहे हैं। विकास कार्य को लेकर अगर सांसद सीएम से मुलाकात करता है तो लोग दल-बदल की बातें कहने लगते हैं, जो कि सही नहीं होता है। वीणा देवी ने यह भी कहा कि मेरे और मेरे पति सूरजभान सिंह के जिंदा रहते लोजपा का कोई भी नेता इधर-उधर नहीं होगा। न ही पार्टी का कुछ नुकसान
लेकिन, आज की जो स्थिति है, उस अनुसार भाजपा राजग में सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन, कोई सीएम का चेहरा नहीं है। आरसीपी के ताकतवर होने के कारण बिहार की राजनीति में व्यापक परिवर्तन देखने को मिल सकता है। लोजपा को लेकर भाजपा नेतृत्व बड़ा निर्णय ले सकती है। यानी निकट भविष्य में चीजें बहुत तेजी से बदलने वालीं हैं। नई सरकार के गठन के बाद और 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले बिहार में एनडीए का स्वरूप क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है।
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इससे क्या फर्क पड़ता है चिराग पासवान को चिराग पासवान को अपना वोट बैंक है चिराग जिसके साथ रहेंगे उसकी जीत सुनिश्चित है एहसान फरामोश और दोगले नेताओं को चिराग पासवान की जरूरत नहीं है चिराग को अपनाने के लिए आज हर पार्टी लालायित है वैसे भी अब बीजेपी में चिराग को नहीं जाना चाहिए