यहां रो पड़ेंगे बुद्ध

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वैशाली के पर्यटन स्थलों की दुर्दशा

भारत गणराज्य जब 2021 में अपना 72वां गणतंत्र दिवस मना रहा होगा, तब शायद ही किसी नागरिक के जेहन में यह बात आए कि आधुनिक भारत के लिहाज से भले ही हमारा गणतंत्र 71 साल पुराना है। लेकिन, अगर इतिहास के व्यापक पटल पर देखें, तो पाएंगे कि 2600 साल पहले हमारे यहां एक फलता-फूलता गणतंत्र था। उस समय जब पश्चिम के हिस्सों में कबिलाई व्यवस्था थी, भारत 16 महाजनपदों में विभक्त था। ये महाजनपद पूरी तरह लोकतांत्रिक प्रणाली से संचालित होते थे। आज की सरकारों के मंत्रालय से अधिक स्पष्ट मंत्रालयों का विभाजन था, जिनमें न्याय, वित्त, रक्षा, शिक्षा आदि प्रमुख था।

वैशाली का इतिहास महाभारतकालीन राजा विशाल तक जाता है। कुद इतिहासकारों यह भी मत है कि राजा विशाल के नाम पर ही लिच्छवी की राजधानी का नाम वैशाली पड़ा। लिच्छवी महाजनपद विशाला नदी के किनारे बसा था, तो दूसरा मत है कि विशाला नदी के नाम पर भी उस स्थान का नाम वैशाली है। वैशाली के साक्ष्य बताते हैं कि तथागत को वैशाली प्रिय थी।

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वह स्वर्णिम अतीत था और आज बदहाल वर्तमान है। वैशाली स्थित अशोक स्तंभ की हालत ठीक है, क्योंकि यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के क्षेत्राधिकार में है। इसलिए वहां साफ-सफाई, रखरखाव, सुरक्षा संतोषजनक हैं। पर्यटक सुविधाएं औसत हैं।

 

इतिहास, संस्कृति, पर्यटन और बौद्ध दर्शन के प्रेमी को असल तकलीफ होगी वैशाली स्थित विश्व शांति स्तूप व बुद्ध रेलिक स्तूप को देखकर। सरोवर के दक्षिण स्थित विश्व शांति स्तूप के प्रांगण की बेरतीबी देखकर भगवान बुद्ध को भी रोना आ जाए। उगी झाड़ियां, टूटे लैंप पोस्ट, जर्जर फव्वारे के पाइप, खंडित बेंच, स्तूप के धरातल पर धूल की जमी मोटी परत आदि। ऐसे कई अन्य नाकारात्मक निशानियां आपको दिख जाएंगी, जो प्रशासन द्वारा उपेक्षा के प्रमाण देते हैं। सेवा में तैनात कर्मी नाम न बताने की शर्त पर कहता है कि सरकार सिर्फ बढ़िया साइनबोर्ड लगवाने पर ध्यान देती है।

अभिषेक पुष्करणी सरोवर के उत्तर में वैशाली उद्यान है, जिसमें बुद्ध अवशेष स्तूप (रेलिक स्तूप) है। उद्यान में प्रवेश करने पर वृक्ष, छोटे पौधों की क्यारियां व समतल घास के मैदान आकर्षित करते हैं। लेकिन, उद्यान में आगे बढ़कर जैसे ही इसके प्रमुख स्थान यानी भगवान बुद्ध के अवशेष स्तूप तक जाते हैं, मन निराशा हो जाता है। जंग से सने रेलिंग के पास रुककर नीचे झांकने पर दयनीय हालत में स्तूप दिखता है। लंबे समय तक पानी लगे रहने के कारण स्तूप के चारों ओर काइ लग गया है। इसकी सफाई नहीं होती क्या? यह पूछे जाने पर तैनात कर्मचारी बताता है कि बरसात में पानी के कारण काइ लग गया।

बरसात तो हर साल आता है। लेकिन, दिसंबर के अंतिम सप्ताह तक अगर काइ जमा रहे, तो दोष बरसात को नहीं, जिम्मेदारों की अकर्मण्यता को देना चाहिए। स्तूप के अगल-बगल लगे कई पेड़ सूख गए हैं। इस पर भी कर्मचारी बरसात को ही दोषी ठहराकर आगे बढ़ जाते हैं। वर्षों पुराने दुर्लभ वृक्षों की छाल कुरेदकर लोग अपना नाम लिख दिए हैं। ऐसा टोक-टाक की कमी से हुआ। घासों पर चलना पर्यटकों को मना है। लेकिन, उन्हीं घासों पर तैनात कर्मचारियों के बच्चे क्रिकेट खेल रहे। पावर शो जारी है। चहुंओर लापरवाही। लोगों में जागरुकता की कमी, धरोहरों को नुकसान पहुंचाने पर दंड मिलने से भयमुक्ति और सरकारी उदासीनता इसके प्रमुख कारण हैं।

अभिषेक पुष्करणी सरोवर के उत्तर संग्रहालय है, जिसमें हजारों साल पुरानी मूर्तियां, कलाकृतियां, बर्तन व अन्य एंटीक्विटी रखे गए हैं। इसकी स्थिति ठीक-ठाक है। स्वच्छता, सुरक्षा ठीक है। लेकिन, पर्यटकों को संग्रहित वस्तुओं के बारे में बताने को लेकर व्यवस्था नहीं है। अगर व्यवस्था हो भी, तो रुचि का अभाव दिखा।

विश्व शांति स्तूप के पास ही स्थित अभिषेक पुष्करणी की भी हालत दयनीय है। सीढ़ियों के उखड़े प्लास्टर, उसके बगल में फैले कचरों के ढेर, मलमूत्र के दुर्गंध किसी भी पर्यटक का नाक-भौं सिकोड़ने के लिए काफी है। सरोवर में जल है। लेकिन, गंदगी के कारण उसके किनारे कोई बैठ नहीं सकता। किस काम का सैंदर्यीकरण किया गया? 2600 वर्ष पुराना यह सरोवर अपने आप में गौरवगाथा समेटे है। लिच्छवी के सिंहासन पर बैठने के लिए जिस शासन का चयन होता था, उसे अभिषेक पुष्करणी के जल से स्नान कराया जाता है। आज भी स्थानीय लोग शुभ कार्य से पूर्व इसमें स्नान करना चाहते हैं। लेकिन, सरकार की उपेक्षा से इसकी दुर्दशा है।

स्तूप और सरोवर की बुरी हालत के अलावा वहां पहुंचने के लिए सड़कों व बस्तियों की अव्यवस्था भी बड़ा अवरोधक है। वैशाली के किसी भी पर्यटन स्थल तक पहुंचने से पहले आप जिन रास्तों से गुजरेंगे, वहां सड़कों पर अतिक्रमण कर बांधी गईं भैंसें व बकरियां, बिखरे हुए पुआल, सड़क पर ही खेलते बच्चे, रास्ता अवरुद्ध कर लगी बैठकी… ऐसे कई लक्षण दिख जाएंगे जो किसी अंतर्राष्ट्रीय पयटन स्थल के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं। बिहार के मुखिया जितना ध्यान नालंदा व राजगीर पर देते हैं, अगर उसका आधा भी वैशाली पर दें, तो उस क्षेत्र का कायाकल्प हो सकता है।

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