पटना : बिहार की राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर दूर सारण जिले में सोनपुर के हरिहर क्षेत्र में प्रतिवर्ष लगने वाला विश्वविख्यात सोनपुर पशु मेला संभवत: दुनिया में एकमात्र ऐसा मेला है, जहां सूई से लेकर हाथी तक की खरीद-फरोख्त होती है।
21 नवंबर से 22 दिसंबर तक चलेगा मेला
प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला सोनुपर मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है। यह भले ही पशु मेला के नाम से विख्यात है, लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां सूई से लेकर हाथी—घोड़ा तक सभी सामान की खरीदारी की जा सकती है। मौजूदा मॉल कल्चर के दौर में भले ही मेले के स्वरूप और रंग-ढंग में बदलाव आया है, लेकिन इसकी सार्थकता आज भी बनी हुई है। इस वर्ष 21 नवंबर से शुरू होकर 22 दिसंबर तक चलने वाले इस एक महीने के मेले में सैलानियों के आने का सिलसिला शुरू हो गया है।
मेला में सैलानियों का आना हो गया शुरू
कार्तिक पूर्णिमा स्नान के साथ यह मेला शुरू हो जाता है जो पूरे एक माह तक चलता है। इस मेले के ऐतिहासिक महत्व के बारे में कहा जाता है कि इसमें कभी अफगानिस्तान, ईरान, इराक जैसे देशों के लोग पशुओं की खरीददारी करने आया करते थे। यह भी कहा जाता है कि मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ने भी इसी मेले से बैल, घोड़े, हाथी और हथियारों की खरीददारी की थी।
मेले में पक्षी मेला भी लगता है। हरिहर क्षेत्र मेले का एक बड़ा आकर्षण मीना बाजार भी होता है। यहां देश के विभिन्न स्थानों से व्यापारी अपने सामानों के साथ पहुंचते है। सोनपुर मेले की प्रसिद्धि इतनी है कि विदेशों से सैलानी इस मेले को देखने बड़ी संख्या में पहुंचते है। मेले में सैलानियों के ठहरने के लिए खास इंतजाम किये जाते हैं।
औरंगजेब के आदेश से सोनपुर में लगने लगा मेला
यह मेला पहले हाजीपुर में लगता था। सिर्फ हरिहर नाथ की पूजा सोनपुर में होती थी लेकिन बाद में मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश से मेला भी सोनपुर में ही लगने लगा। सोनपुर का मेला अपने आप में समृद्ध विरासत को समेटे हुए है। प्राचीनकाल से लगनेवाले इस मेले का स्वरूप भले कुछ बदला हो लेकिन इसकी महत्ता आज भी बरकरार है। करीब 20 वर्ग किलोमीटर में फैले इस मेले की भव्यता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मेले के एक छोर से दूसरे छोर तक घूमते-घूमते लोग भले ही थक जाएं लेकिन उत्सुकता बनी रहती है।
बाबू कुंवर सिंह ने इसी मेले से खरीदा था अरबी घोड़ा
देश के 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के लिए बाबू वीर कुंवर सिंह ने इसी मेले से अरबी घोड़े, हाथी और हथियारों का संग्रह किया था। सिख ग्रंथों में यह जिक्र है कि गुरू नानक देव यहां आये थे। बौद्ध धर्म के अनुसार, अपने अंतिम समय में महात्मा बुद्ध इसी मार्ग से होकर कुशीनगर की ओर गये थे, जहां उनका महापरिनिर्वाण हुआ था। सोनपुर की इस धरती पर हरिहरनाथ मन्दिर दुनिया का इकलौता ऐसा मन्दिर है, जहां हरि (विष्णु ) तथा हर (शिव) की एकीकृत मूर्ति है। इस मन्दिर के बार में कई धारणायें प्रचलित हैं।
हरिहर क्षेत्र को ऋषियों और मुनियों ने प्रयाग और गया से भी श्रेष्ठ तीर्थ माना है। ऐसा कहा जाता है कि इस संगम की धारा में स्नान करने से जन्म-जन्मांतर के पाप कट जाते हैं। यहां हाथी, घोड़े, गाय, बैल,चिड़ियों के अलावा सभी प्रकार के आधुनिक सामान, कंबल, दरी, कई प्रकार के खिलौने और लकड़ी के सामान भी बिकने आते हैं। मेले में कई सारी चीजें जैसे कपड़े, गहने, बर्तन, खिलौने की दुकानें सजती हैं। कुछ लोग मेले में करतब और खेल दिखा कर भी मेले में आए लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
गज—ग्राह की कहानी व पौराणिक कथाओं में सोनपुर मेला
इस मेले को लेकर अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। पुराणों के अनुसार, भगवान विष्णु के दो भक्त जय और विजय शापित होकर हाथी (गज) और मगरमच्छ (ग्राह) के रूप में धरती पर उत्पन्न हुए थे। एक दिन कोनहारा के तट पर जब गज पानी पीने आया तो ग्राह ने उसे पकड़ लिया था। फिर गज ग्राह से छुटकारा पाने के लिए कई दिनों तक लड़ता रहा। तब गज ने बड़े ही मार्मिक भाव से हरि यानी विष्णु को याद किया। गज की प्रार्थना सुनकर कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु उपस्थित हुये और सुदर्शन चक्र चलाकर उसे ग्राह से मुक्त करया और गज की जान बचाई। इस मौके पर सारे देवताओं ने यहां उपस्थित होकर जय-जयकार की थी लेकिन आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि गज और ग्राह में कौन विजयी हुआ और कौन हारा। इसी के पास कोनहरा घाट में पौराणिक कथा के अनुसार, गज और ग्राह का कई दिनों तक चलने वाला युद्ध हुआ था। बाद में भगवान विष्णु की सहायता से गज की विजय हुई थी।
जय—विजय के लिए भगवान बने “हरि और हर”
एक अन्य किंवदंती के अनुसार, जय और विजय दो भाई थे। जय शिव के तथा विजय विष्णु के भक्त थे। इन दोनों में झगड़ा हो गया तथा दोनों गज और ग्राह बन गए। बाद में दोनों में मित्रता हो गई। वहां शिव और विष्णु दोनों के मंदिर साथ- साथ बने जिससे इसका नाम हरिहर क्षेत्र पड़ा।
कुछ लोककथा के अनुसार, प्राचीन काल में यहां ऋषियों और साधुओं का एक विशाल सम्मेलन हुआ तथा शैव और वैष्णव सम्प्रदाय के बीच गंभीर वाद-विवाद खड़ा हो गया लेकिन बाद में दोनों में सुलह हो गई और शिव तथा विष्णु दोनों की मूर्तियां एक ही मंदिर में स्थापित की गईं। उसी स्मृति में यहां कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर मेले का अयोजन किया जाता है। इस स्थान के बारे में कई धर्मशास्त्रों में चर्चा की गई है। हिंदू धर्म के अनुसार, कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां स्नान करने से सौ गोदान का फल प्राप्त होता है। कहा तो यह भी जाता है कि कभी भगवान श्रीराम भी यहां आये थे और बाबा हरिहरनाथ की पूजा-अर्चना की थी।