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बिहार चुनाव: सोशल मीडिया और आधारहीन कंटेंट की बाढ में कराहता दिखा लोकतंत्र का पर्व  

भारत का लोक मन और मिजाज पश्चिम के देशों से काफी भिन्न है, लेकिन चुनाव के मौके पर भारत के लोक के मन ओर मस्तिष्क को पढ़ने के लिए भारत में राजनीतिक रणनीति के व्यवसाय में लगे लोग पश्चिम के तकनीक और उपकरण का ही उपयोग करते आ रहे हैं। यूं कहें कि वे भारत को समझने के लिए पश्चिम के तौर तरीके के उपयोग की परम्परा और मान्यता को भारत में भी स्थापित करने के अपने प्रयास को किसी भी सूरत मेें सफल बनाने पर तुले हैं।

लेकिन, उन्हें यह जान लेना चाहिए कि भारत गांवों का देश है। तेजी से हो रहे शहरीकरण एवं साइबर क्रांति के बावजूद भारत के गांव के लोग आज भी बंद है तो लाख के, खुल गया तो खाक के वाली मुहावरे को अपने मन और व्यवहार मेें आबाद रखे हुए हैं। ऐसे में करोड़ो खर्च से होने वाले एग्जिट पोल अंततः औधे मुंह गिरते रहते हैं। सनसनी के सहारे कमाई करने के लिए कुख्यात मीडिया बाजार में इस बेकार के धंधे को पाला जा रहा है।

यह धंधा मनोरंजन तक सिमटा रहता तो कोई बात नहीं, अब तो यह भारत के लोकतंत्र को कमजोर करने वाला भी साबित हो रहा है। क्योंकि इसके माध्यम से चुनाव के पूर्व भ्रम का वातावरण भी बनाया जाने लगा है। इस वातावरण का उपयोग विदेशों में बैठे विस्तारवादी मानसिकता वाली शक्तियां करने लगी हैं। पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के पूर्व कुछ मीडिया संस्थानों के खाते में विदेश से पैसे आए। वह पैसा चुनाव के अवसर पर जलसंरक्षण, बाल मजदूरी जैसे मुद्दों की स्थिति जानने के लिए ओपिनियन पोल कराने के नाम पर आए थे। लेकिन, बाद में उस पैसे का उपयोग एनआारसी ओर भारत में अल्पसंख्याकों के ऐजेंडे के बारे में जानकारी एकत्रित करने के लिए किया जाने लगा।

अब बात करते हैं बिहार चुनाव को लेकर विभिन्न मीडिया संस्थानों द्वारा कराए गए ओपिनियन पोल की। बिहार चुनाव के पूर्व ओर बाद में हुए सभी ओपिनियन पोल गलत साबित हुए क्योंकि इस काम को करने वाले ईमानदार नहीं थे। मीडिया कम्पनियां ओपिनियन पोल के बहाने किसी न किसी गठबंधन या पार्टी के लिए माहौल बनाने में लगी थीं। एक तरह से वे राजनीतिक दलों के एजेंट के तौर पर काम कर रही थीं। यही हाल कुछ पत्रकारों का भी था। अपनी रिपोर्ट या सोशल मीडिया के माध्यम से वे आम मतदाताओं को गलत सूचना देकर भरमाने में लगे थे। इसमें सबसे गलत बात यह थी कि इस बार के चुनाव में मुद्दों को लेकर ईमानदार बहस की भारी कमी रही।

सत्य व प्रामाणिक तथ्यों के आधार पर लोकमत जागरण की जिम्मेदारी मीडिया की है। लेकिन, बिहार चुनाव में मीडिया अपने इस जिम्मेदारी का ठीक से निर्वहन करते नहीं दिखा। पत्रकारिता के नाम पर मीडिया मैनेजमेंट का धंधा करने वालों ने तो रही सही कसर पूरी कर दी। सोशल मीडिया पर असत्य और आधारहीन कंटेंट की बाढ में लोकतंत्र का यह पर्व मानसिक प्रदूषण से कराहता दिखा। छवि बिगाड़ो छवि बनाओं के फार्मूले पर काम करने वाले इन गिरोहों के कारण इस बार के चुनाव में बिहार की भारी क्षति हुई है, क्योंकि यहां की मूल समस्याएं चुनावी मुद्दा नहीं बन सकीं।