कृषि बिल के आगे बेबस किसान, अन्नदाता से अब राष्ट्र निर्माता मजदूर

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जिस देश का अन्नदाता किसान कुदाल और बैल लेकर खेतों में जाने के बजाय सड़को पर उतर जाए उस देश के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात क्या होगा, देश के जीडीपी में 16-18 प्रतिशत तक का योगदान देने वाले किसानों की संख्या 2014-2015 रिपोर्ट के अनुसार देश की जनसंख्या का 67.8 प्रतिशत है। इस आधार पर कहा जा है इस देश का एक बड़ा तबका आज भी खेत-खलिहानो पर निर्भर हैं हैं और इनके हित को किसी भी तरीके से नजर अंदाज नहीं किया जा सकता हैं।

वर्तमान में भारत सरकार कृषि से संबंधित तीन अध्यादेश लागू करने जा रही है, जिसे सरकार, उनके सहयोगी घटक और कुछ सामाजिक व कृषि संगठन किसानों के हित में बता रहे हैं। वहीं विरोधी दलों, अन्य कृषि संगठनों के साथ-साथ सरकार का एक घटक अकाली दल भी विधेयक के विरोध में आ गया।

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कानून से ई-ट्रेडिंग का सुलभ विकल्प

सरकार का पहला विधेयक है, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक 2020। इसमें किसानों को अपनी फसल व्यापारियों को मंडी के बाहर फसल बेचने की आजादी होगी। इससे राज्य के अंदर एक जिले से दूसरे जिले और राज्यों के बाहर एक राज्य से दूसरे राज्य में व्यापार को बढ़ावा मिलेगा, जो स्वागत योग्य भी हैं। लेकिन, यहाँ ये सोचने की बात है कि देश का 86 प्रतिशत किसान लघु और माध्यम वर्ग के श्रेणी में आते हैं, जिनके पास 5 एकड़ से भी कम खेती योग्य जमीन है और इनमें से अधिकतर किसान अपनी फसल मंडी न ले जाकर आसपास के व्यापारियों को बेचते हैं। वर्ष 2003 के एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग (रेगुलेशन) एक्ट के तहत सरकार किसानों को बाध्य भी नहीं कर सकती कि वह अपनी फसल मंडी में ही बेचें। इस आधार पर कह सकते हैं की बाजार की आजादी तब भी थी। लेकिन, सीमित क्षेत्र में अब ये क्षेत्र पूरी तरह खुला हो गया है और इस कानून से ई-ट्रेडिंग का सुलभ विकल्प भी मिल गया।

मंडी के बाहर एमसपी न होना कहीं न कहीं किसानों के हित में नहीं

लेकिन, तब किसानों के फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) था, जो नए नियम में मंडी के बाहर अनाज उत्पादन में नहीं है। जबकि देश के कृषि मंत्री और प्रधानमंत्री कह रहे है कि मंडी में पूर्व की भांति सरकारी खरीद चलती रहेगी और उसपर एमएसपी रहेगी। मंडी के बाहर एमसपी ना होना कहीं न कहीं किसानों के हित में नहीं हैं। यदि मंडी के बाहर के खरीद पर भी एमएसपी का प्रावधान हो और एमएसपी के नीचे खरीददारी जुर्म हो, तो यह कृषि कानून काफी क्रांति लाने वाला होता, क्योंकि बाजार में प्रतिस्पर्धा आएगी और किसानों के पास ज्यादा विकल्प होंगे अपनी उपज बेचने के लिए।

आरबीई के 2018 के एक सर्वे के अनुसार 50 प्रतिशत से ज्यादा किसानों ने न्यूनतम फसल मूल्य (एमएसपी) को अपने हित में बताया था, फिर भी सरकार नए बिल में एमसपी क्यों नहीं जोड़ रही ये समझ के बाहर की बात है। एमएसपी का निर्धारण तमिलनाडु में जन्मे और पद्म विभूषण प्रो. एमएस स्वामीनाथन कमिटी के रिपोर्ट के आधार पर कुल लागत (कुल खर्च पारिवारिक मजदूरी ) का 1.5 गुना होना चाहिए।

अन्नदाता से अब राष्ट्र निर्माता मजदूर

दूसरा विधेयक, कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक-2020, जिसमे व्यापारी या कंपनियाँ बुवाई से पूर्व किसानों से एक अनुबंध करेंगी कि आप इस फसल की बुवाई करो और हम फलां तारीख को अनाज अमुक मूल्य पर आपसे खरीदेंगे। यह निस्संदेह काफी अच्छा बिल है। किसान के फसल का मूल्य बुवाई के पूर्व निर्धारण हो जायेगा इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। लेकिन, इससे साथ इसमें कुछ खामियाँ भी हैं, क्योंकि अपने देश के आधे से ज्यादा किसानों के पास खेती के पर्याप्त खेत नहीं हैं। वे बड़े किसानों के खेत अधिया, तीसरी या बटाई पर लेकर खेती करते हैं और अनुबंध खेती प्रणाली आने पर व्यापारी या कंपनियाँ सीधे खेत के मालिकों से अनुबंध करेंगी जिससे ये अधिया, तीसरी या बटाई पर खेती करने वाले किसान बस नाम मात्र का किसान कहलाएगा, जबकि सरकारी आकड़ों में उनकी गिनती देश के किसानों में होती रहेगी।

दूसरे अनुबंध खेती प्रणाली से एक फायदा यह है कि अनुबंध होने से व्यापक स्तर पर उस फसल पर खेती होगी, जिसके लिए श्रमिकों की जरुरत होगी और स्थानीय लघु किसानों के लिए रोजगार का भी सृजन होगा। लेकिन, जो लघु किसान कल तक अन्नदाता भगवान के नाम से जाना जाता था, अब वह राष्ट्र निर्माता मजदूर कहलाएगा।

आम नागरिक कार्यपालिका में उतना विश्वास नहीं रखता जितना कि न्यायपालिका में

एक प्रमुख खामी यह भी स्पष्ट दिख रहा कि किसी विवाद के स्थिति में किसान और अनुबंध करने वाला व्यापारी उप प्रभागीय न्यायाधीश (एसडीएम) के यहाँ अपील करेगा और 30 दिनों में निस्तारण न होने पर जिला न्यायाधीश (डीएम) के यहाँ मामला जायेगा और डीएम मामले का निस्तारण करेंगे। अपने देश में भ्रष्टाचार कितना चरम पर हैं, किसी से छुपा नहीं हैं। ये (भ्रष्टाचार अनुभव सूचकांक 2019 में भारत का दुनिया के 180 देशों में 80वां स्थान पर है), तो यंहा भी संभावना है कि आर्थिक रूप से मजबूत व्यापारी या कंपनी इन प्रशासनिक अधिकारियों पर निर्णय को अपने पक्ष में करने के लिए येनकेन प्रकारेण दबाव डालेंगे। यदि ऐसा हुआ तो दूसरों का पेट भरने वाला, आधा तन ढककर खेतों में हल चलाने वाला किसान अपने हक की लड़ाई कैसे जितेगा? सरकार को चाहिए कि इसमें आगे के कोर्ट की व्यवस्था भी बनाए, ताकि इन मनोनीत अधिकारियों से न्याय न मिलने पर किसान के साथ-साथ व्यापारी को भी ऊपर की अदालत में अपनी बात कहने का हक हो, क्योंकि आज भी देश का आम नागरिक कार्यपालिका में उतना विश्वास नहीं रखता जितना कि न्यायपालिका में।

आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020 से किसान ही नहीं आम जनमानस भी होगा परेशान

इस कड़ी का तीसरा अध्यादेश है आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक- 2020। इस अध्यादेश में सरकार ने अब खाद्य तेल, तिलहन, दाल, प्याज और आलू जैसे कृषि उत्पादों पर से स्टॉक लिमिट हटा दी गई है। राष्ट्रीय आपदा, सूखा, महामारी युद्ध जैसी स्थितियों में स्टॉक लिमिट लगाई जाएगी। इससे एक फायदा तो है कि किसानों की उपज अब बेकार होकर फेंकी नहीं जाएगी। लेकिन, बाकी बिल की तरह यहाँ भी कालाबाजारी जैसी कुछ और खामियाँ दिख रही हैं, क्योंकि जब फसल के उत्पादन का समय होता है, तो ज्यादा उपलब्धता के कारण बाजार में आसानी से कम रेट में फसल मिलती है। जब इन खाद्य वस्तुओं से स्टॉक लिमिट हट जाएगी, तो बड़े-बड़े व्यापारी, कंपनी फसल उत्पादन के समय किसानों से कम रेट में ज्यादा माल खरीद कर इन्हें जमा कर लेंगे और बाजार में इनके मांग पर पूर्ति ना करके इनकी उपलब्धता की कमी दिखाते हुए उच्च दामों में इन वस्तु को बेचेंगे, जिससे इस संरचना में सबसे आखिरी कड़ी कहा जाने वाला उपभोक्ता प्रभावित होगा। उसे महंगे दामों पर इन दैनिक खाद्य वस्तुओं को खरीदनी पड़ेगी और महँगाई में बेजोड़ बढ़ोत्तरी होगी , इसका उदाहरण देश में बीच-बीच में प्याज की आसमान छूते भाव में देखने को मिले है कि कैसे इसका भण्डारण कर कीमतों की कालाबाजारी किया जाता रहा हैं और खाद्य तेल, तिलहन, दाल, प्याज और आलू तो हर घर में प्रयोग किया जाता है। इस आधार पर कह सकते है कि आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020 से किसान ही नहीं आम जनमानस भी परेशान होगा।

किसानों के बीच एक सर्वे करा कर लोकसभा से भी कृषि विधेयक ला सकती थी सरकार

आखिरी सवाल जेहन में ये उठता हैं कि सरकार को इतनी जल्दी क्या थी इस जो ये संशोधन को लोकसभा के बजाय अध्यादेश (भारतीय संसद के द्वारा नये कानूनों का निर्माण,पुराने कानूनों में संशोधन किया जाता है। लेकिन, जब संसद का सत्र न चल रहा हो तो भारत सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर भारत का राष्ट्रपति जिन कानूनों को लागू करता है वह अध्यादेश कहलाता है और अध्यादेश संसद की कार्यवाही पुनः शुरू होने पर दोनों सदनों में न्यूनतम छह सप्ताह और अधिकतम छह माह के समय सीमा में पारित करना आवश्यक होता है। यदि दोनों ही सदन इसे खारिज करने के पक्ष में मतदान करते हैं तो यह अध्यादेश समाप्त हो जाता है) से लाई।

अध्यादेश की बजाय सरकार किसानों के बीच एक सर्वे करा कर लोकसभा से भी कृषि विधेयक ला सकती थी। सरकार क्या सच में, किसानों के हित के लिए ज्यादा उतावली थी या फिर पूंजीपतियों के दबाव में उन्हें फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से इस महामारी में मौके पर चैका मरना चाहती थी। कृषि विधेयकों के पास होने के बाद से ही अकाली दल हरियाणा और पंजाब के किसानों का मूड देखते हुए सरकार से बगावती तेवर अपनाई हुई हैं। उस समय क्यों चुप थी जब कैबिनेट मीटिंग करके ये अध्यादेश लाया जा रहे थे? इसे खाने के लिए अन्न उपजाने वाले बेबस किसानों के साथ सियासत की राजनीति करना ना कहें तो और क्या कहें?

खैर ये तो आने वाला भविष्य ही बताएगा कि इस अध्यादेश का परिणाम कैसा आएगा, क्योंकि इस तरह के कानून का परिणाम तुरंत नहीं अपितु कुछ सालों के बाद दिखाई पड़ता है।

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