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…जब अध्यापक की बात भी नहीं माने थे गांधी

‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’

प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति अपने समकालीन समाज और व्यवस्थाजनक परिप्रेक्ष्यों पर व्यापक अनुक्रिया करता है। वह प्रचलित दशा का अवलोकन करता है, उसका विश्लेषण करता है और उसके अनुकूल – प्रतिकूल पक्षों की तलाश कर समस्याओं को इंगित करने में सफलता प्राप्त करता है। जागृत व्यक्ति की संवेदनशीलता उसे मात्र समस्याओं को इंगित करने के कार्य पर ही ठहरने की अनुमति नहीं देती है बल्कि वह उसे ठोस हल भी प्रस्तुत करने का अभिप्रेरण प्रदान करती है।

ऐसा व्यक्ति निश्चय ही अपने समाज के लिए असाधारण कार्य करता है। उसका यह तीक्ष्ण अवलोकन और भगीरथ कार्य एकतरफा अर्थात् मात्र समाज के लिए(बहिर्मुखी) ही नहीं होता है बल्कि वह स्वयं के लिए भी उतना ही जागरूक और क्रियाशील रहता है। यहां स्वयं के लिए जागरूक होने का अर्थ संकीर्ण स्वार्थभाव से नहीं है बल्कि व्यवस्थित-तार्किक-उपयोगी जीवन पद्धति से है।

निश्चय ही मोहनदास करमचंद गांधी ऐसे ही एक संवेदनशील व्यक्ति थे। यह उनकी संवेदनशीलता ही थी जिसने उन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का स्वरूप धारण करने वाला बना दिया।

यदि हम महात्मा गाँधी के जीवन का सरसरी तौर पर अवलोकन करके यह विचार करें कि उनके और समाज के परस्पर सम्पर्कों का वह कौन सा प्रारम्भिक और महत्व का पहलू है, जो स्पष्टता के साथ उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता ही नहीं बल्कि विस्तार भी देता है। निश्चित ही उनकी जीवनमाला में ऐसे अनेक घटनाक्रम समुज्ज्वल रत्नों की भाँति चमकदार बनकर जड़े हुए हैं जो मानवजाति के लिए सदैव ही पवित्र उत्प्रेरक के रूप में अमर हैं।

गाँधी जी को महात्मा बनाने वाली उनके जीवन की अनेक घटनाओं का स्मरण करते ही अनेक लोग अक्सर दक्षिण अफ्रीका में पीटर मारित्जबर्ग रेलवे स्टेशन पर ट्रेन की प्रथम श्रेणी के डिब्बे में हुए नस्लभेद काण्ड को याद करते हैं। यहां इसे काण्ड कहना इसलिये ठीक है क्योंकि यह घटना गाँधी के वैचारिक जीवन की क्रांति एवं उसकी दिशा के संदर्भ में स्वयं में ही एक बड़ा अध्याय है।

दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी के साथ हुई यह घटना उनको महात्मा बनाने के क्रम में सर्वाधिक उल्लेखनीय आवश्य है किन्तु उनके जीवन में घटित इसके पूर्व भी कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं, जिन्होंने उन्हें इस रूप में तैयार किया था कि वे अपने साथ ट्रेन के डिब्बे में हुए अन्याय को व्यापक विस्तार के साथ देख सके और प्रतिक्रिया स्वरूप उस सदी के दुनिया भर में मानवता के पुजारी ही नहीं बल्कि पुरोधा बन गए।

इस नस्लवादी अन्याय के प्रति गाँधी की यह प्रतिक्रिया ना तो दक्षिण अफ्रीका तक ही सीमित रही थी और ना ही नस्लभेद के विरुद्ध संघर्ष तक ही बल्कि इसने उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों से सुसज्जित जीवन पद्धति और व्यवहार की साक्षात उपलब्धियों तक विस्तार किया था और क्षण क्षण के भी आचरण की पवित्रता तक अपना साम्राज्य कायम किया था और इसी का परिणाम था कि गाँधी दृढ़ता से यह कह सके कि “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।”

उक्त बात को कहने का सामर्थ्य मात्र संवेदनशील होने से ही प्राप्त नहीं होता है बल्कि इसके लिए संवेदनशीलता के साथ गम्भीरता भी एक अनिवार्य गुण है। बिना गम्भीर भाव को धारण किए जीवन की पाठशाला में प्राप्त शिक्षा को स्थाई रूप में आत्मसात नहीं किया जा सकता है।

गाँधी जी ने अपनी आत्मकथा में अपने प्रारम्भिक जीवन की अनेक घटनाओं से जुड़े अनुभवों एवं उनसे प्राप्त शिक्षाओं को साझा किया है, जिनसे उनका जीवन दर्शन ही बदल गया। स्कूल की एक घटना (जिससे गाँधी जी को ईमानदारी पर दृढ़ता प्राप्त हुई) को याद करते हुए गाँधी लिखते हैं कि एक बार शिक्षा विभाग के एक अधिकारी हमारे स्कूल का निरीक्षण करने आए थे, जहां उन्होँने हमारी कक्षा में हम विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पांच शब्द लिखने को कहा। उन पांच शब्दों में “केटल” एक शब्द था, जिसके हिज्जे विद्यार्थी गाँधी को ठीक ठीक नहीं आ रहे थे।

उनकी इस स्थिति को भांपते हुए उनके स्कूल के एक अध्यापक ने उन्हें बगल में बैठे लड़के से देख कर लिख लेने (नकल करने) का इशारा किया। गाँधी बताते हैं कि वे इस इशारे को नहीँ समझ पाए क्योंकि वे पहले से ही नकल करने को गलत मानते थे और अन्त में जब कापी जांच की गई तो उन्होंने वह शब्द गलत लिख रखा था। गाँधी यहां यह और ठीक से सीख सके थे कि जानकर गलत करना ईमानदारी से मुँह मोड़ना है।

प्रारम्भिक अवस्था से ही गाँधी के जीवन को सही मार्ग पर प्रतिष्ठित होने के लिए गढ़ने में दो चरित्रों का विशेष योगदान था। गाँधी अपने जीवन की सीख सम्बंधी दूसरी घटना को श्रवण कुमार की कहानी को पढ़ने से जोड़ते हैं। वे बताते हैं कि विद्यार्थी रहते उन्हें विषय सम्बंधी पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य कोई भी पुस्तकें पढ़ने को मन नहीं होता था, इसका कारण यह था कि विषय की ही पुस्तकें बहुत होती थीं और उन्हें ही पढ़ते रहने में सारा समय बीत जाता था। उसी दौरान घर में रखी पिता जी की खरीदी श्रवण कुमार की कथा वाली पुस्तक पर दृष्टि जम गई और उसे बहुत मन से पूरी पढ़ डाली। इसका प्रभाव गाँधी जी के ऊपर मातृ – पितृ भक्ति के अमूल्य पाठ के रूप में पड़ा।

गाँधी जी के लिखे अनुसार उनको उनके जीवन भर के लिए सर्वाधिक उपयोगी और महत्वपूर्ण शिक्षा हरीशचंद्र नाटक देखने से मिली। बहुत कम लोग जानते हैं कि बचपन के अबूझ जीवन में गाँधी अपने पिता के कोट से रुपए चुराया करते थे और उस चोरी के लिए अपने नौकर का नाम बता दिया करते थे कि उनपर कोई शक ना करे। इतना ही नहीं, गाँधी लिखते हैं कि वे बचपन में अपने नौकर द्वारा पीकर फेंक दी गई जूठी बीड़ी भी एकत्रित करके पिया करते थे। वे नशेड़ी नहीं थे बल्कि उनकी ये सभी हरकतें बाल पन के कोमल मन की क्षद्म जिज्ञासाओं की प्रतिभूत थीं।

गाँधी बताते हैं कि उनके बचपन के दिनों में प्रचलित समाज में अनेक नाटक मंडली हुआ करती थीं, जो स्थान स्थान पर नाटक दिखाती थीं। ऐसे ही उनके घर के करीब एक बार नाटक हुआ, जहां जाने के लिए घर से स्वीकृति मिल गई थी, अतः गाँधी नाटक देखने गए। नाटक सत्यवादी राजा हरीशचंद्र के ऊपर था। गाँधी उस नाटक को देखकर बहुत प्रभावित हुए। सत्य के मूल्य की शक्ती को देखकर गाँधी आश्चर्यचकित हो उठे और उन्होंने सत्य की शक्ति की परीक्षा करने का विचार किया।

गाँधी जी के पिता बहुत ही सख्त मिजाज के इंसान थे। वे पेशे से वकील थे। घर में घर के सदस्यों से बहुत कम बात किया करते थे और गलती पकड़ने पर बच्चों को पीट देते थे। इस बार गाँधी हरीशचंद्र नाटक से प्रभावित होकर अपने पिता को अपनी सभी बुरी बातों को, चोरी करना, जूठी बीड़ी पीना आदि सब कुछ सच सच बता देने की ठानी। ऐसा करके वे सत्य की शक्ति को जानना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने ठीक यही किया और पिता जी के सम्मुख जाकर अपने बारे में सब कुछ सच सच कह डाला। इसका परिणाम आशा के विपरीत और आश्चर्यजनक था।

गाँधी के पिता गाँधी द्वारा बताई सभी बातों को सुनकर बिल्कुल भी क्रोधित नहीं हुए और ना ही पीटने को उद्धत हुए बल्कि दो एक बातें समझाकर संतुष्टि के शान्त भाव में रह गए। गाँधी जी ने पहली बार अपने जीवन में सत्य की शक्ति का अनुभव किया था। वे लिखते हैं कि तब से लेकर आज तक सत्य के प्रति मेरी अटूट श्रद्धा कभी कमजोर नहीं पड़ी और यहीं से गाँधी सत्य के यथार्थ पुजारी बन गए।

ये बहुत छोटी-छोटी घटनाएं थीं, किन्तु इनके प्रभाव स्वरूप एक साधरण बालक दुनिया में अपनी सदी का एक महान महात्मा बन गया। वास्तव में यदि इन घटनाओं की परिस्थितयों का यथार्थ विचार किया जाए तो स्पष्ट होगा कि यहां उन घटनाओं से अधिक उन पर की गई प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है और यह प्रतिक्रिया संवेदनशीलता तथा गम्भीरता जैसे गुणों की उपज है।

किसी भी महान व्यक्तित्व के जीवन में एक सामान्य दशा देखने को मिलती है और वह है सजगता। सजगता से जिया गया जीवन सर्वोत्तम उत्पादक ही नहीं बल्कि प्रेरणादायक भी बन जाता है। गाँधी जी के जीवन में उपजे अनेक मार्गदर्शक और शिक्षाप्रद रत्न सदियों के लिए संदेश तो हैं ही साथ ही कुशल – सजग – गम्भीर और संवेदनशील जीवन जीने के प्रतीक भी हैं।

आज महात्मा गाँधी को जीते हुए एक राष्ट्र के रूप में 151 साल पूरे कर रहें हैं, आइये इस अवसर पर हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के रास्ते खोजें।।

महेंद्र पांडेय

(लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)