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अतीत से पीछा छुड़ाने के प्रयास में बिखरने लगा राजद

चुनाव आयोग ने साफ कर दिया है कि कोरोना संक्रमण के कारण बिहार विधानसभा के चुनाव नहीं टाले जाएंगे। इसके साथ ही राज्य में राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गई। लालू प्रसाद के नेतृत्व वाला राजद मुख्य विरोधी दल है, जबकि राजद के लिए सबसे बड़ी चुनौती है लालू परिवार पर लगे भ्रष्टाचार के कई आरोपों को धोना, अब तेजस्वी द्वारा लालू परिवार की इस छवि को बदलने का भरसक प्रयास किया जा रहा है। पिता को सामजिक न्याय के प्रणेता बताने के साथ तेजस्वी अब आर्थिक न्याय की बात कर रहे हैं। इस तरह से राजनीतिक पोस्टरों से पूरे परिवार तथा पार्टी के सभी नेताओं को गायब करते हुए खुद बिहार का यूथ आइकॉन बनने की जुगत में हैं।

पोस्टर से गायब राजद के अन्य सभी नेता

लेकिन चुनाव की आहट के साथ राजद में मची भगदड़ विपक्षी खेमे के लिए अच्छा संकेत नहीं। राजद के 5 विधान परिषद सदस्य, 7 विधायक और कई पदाधिकारी पार्टी छोड़ चुके हैं। लालू प्रसाद की पार्टी और उसके नेतृत्व वाले महागठबंधन, दोनों में बिखराव की प्रक्रिया तेज है। हालांकि जीतन राम मांझी के महागठबंधन से बाहर आने से विपक्ष को जो नुकसान होगा, उसकी भरपायी वामपंथी दलों से हाथ मिलाकर करने की कोशिश हो रही है।

सवाल यह है कि जब सत्तारूढ़ गठबंधन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के काम पर वोट मांगने जा रहा है, तब महागठबंधन चारा घोटाला में सजायाफ्ता लालू प्रसाद, सोनिया गांधी और चीनपरस्त कम्युनिस्टों के चेहरे पर क्या जनता का भरोसा हासिल कर पाएगा?

1962 से आज तक जो वामपंथी दल चीनी आक्रमण और अतिक्रमण को जायज ठहराकर राष्ट्रीय हितों से विश्वासघात करते रहे और जिनके लाल झंडों ने बिहार में उद्योग-व्यापार-रोजगार को पनपने नहीं दिया, उनसे चुनावी तालमेल करना अपने आप में एक नकारात्मक संदेश है। राजद बेरोजगारी का मुद्दा उठाता है, जबकि यह समस्या उसके विकासहीन शासन के दौर में ही विकराल हुई। विकास और रोजगार को लेकर न विपक्ष के पास कोई रोडमैप है, न उसके नेतृत्व में विश्वसनीयता दिखायी पड़ती है। दूसरी तरफ नमो-नीतीश की सरकार सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की नीति पर काम कर रही है।

पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने ढांचागत विकास के लिए जो नींव के पत्थर लगाये, उस पर परवर्ती कांग्रेस सरकारें इमारत नहीं बना सकीं। बाद में लालू-राबड़ी सरकार की पालकी ढोती कांग्रेस ने न तो नींव के पत्थर उखड़ने की चिंता की, न बिहार से श्रम, पूंजी और प्रतिभा के सामूहिक पलायन पर कोई सवाल उठाया।

लालू प्रसाद यदि कहते हैं कि नीतीश राज में किसान लाचार हैं, तो बतायें कि उनके समय खेती की क्या हालत थी? क्या कोई कृषि रोडमैप बना था? किसानों को बिजली मिलती थी? उपज का समर्थन मूल्य कितना मिलता था? एनडीए सरकार से नाराजगी और निराशा के कई मुद्दे हो सकते हैं, लेकिन महागठबंधन कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं कर पा रहा है। चुनाव सीमित विकल्पों के बीच होगा।