पटना : नयी दिल्ली में नीतीश कुमार और अमित शाह के बीच सीट बंटवारे पर सहमति बन गई। घोषणा भी कर दी गई कि दोनों दल बराबर-बराबर सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। लेकिन राजनीतिक विश्लेषक इसे भाजपा द्वारा बैकफुट पर जाने के तौर पर देख रहे हैं। दूसरी तरफ जदयू समर्थक इसे अपनी जीत के रूप में मानकर जश्न में डूब गए हैं। यानी, नीतीश अपने हक में फिर अपने पार्टनर को ‘जहर पिलवाने’ में कामयाब रहे। इससे पहले नीतीश के लिए 2014 में उनके बड़े भाई लालू प्रसाद ने ‘जहर’ पीया था। भाजपा द्वारा जीते हुए सीटों की मौजूदा कुर्बानी को लोग इसी रूप में ले रहे हैं। उधर इतना होने के बाद भी नीतीश की विश्वसनीयता एनडीए में अभी भी अटल-आडवाणी युग जैसी नहीं हो पायी है। एनडीए के घटकों-भाजपा, लोजपा और रालोसपा के कुछ नेता आज भी नीतीश को लेकर काफी संशंकित हैं। वे कब पलटी मार दें, नहीं कहा जा सकता। फिर अब तो प्रशांत किशोर भी नीतीश के साथ हो गए हैं। आइए जानते हैं कि ऐसा क्यों सोचा जा रहा है?
पीएम मैटेरियल की चुभन और नीतीश का ट्रैक रिकार्ड
दरअसल, नीतीश कुमार के ट्रैक रिकार्ड को देखने से यह पता चलता है कि वे कोई भी कदम अपने राजनीतिक नफा-नुकसान का आंकलन करने के बाद ही उठाते हैं। उनकी महत्वाकांक्षा तो आज भी ‘पीएम मैटेरिल’ वाले काॅनसेप्ट पर ही टिकती है, लेकिन हालात इसकी मंजूरी नहीं देते। वे आज भी नरेंद्र मोदी-अमित शाह को ‘अटल-आडवाणी’ की तरह स्वीकार नहीं कर पाए हैं। नरेंद्र मोदी का विरोध उन्होंने सिर्फ इसलिए किया क्योंकि उन्होंने एनडीए में अटल जी के बाद खाली हुए ‘करिश्माई’ नेतृत्व की कमी को बहुत हद तक पूरा कर दिया था। नीतीश की योजना खुद को सब की सहमति से एनडीए का मान्य नेता के तौर पर स्थापित करने की थी। इसमें उन्हें आडवाणी जी का भी आशीर्वाद प्राप्त था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। फलतः उन्होंने एनडीए से नाता तोड़ लिया। अब उनकी योजना यूपीए का नेता बन ‘पीएम मैटेरियल’ के सपने को साकार करने की बनी। लेकिन यहां भी राहुल गांधी और लालू यादव उनके आड़े आ रहे थे। ऐसे में उन्होंने फिर एक बार पलटी मारी और महागठबंधन से नाता तोड़ फिर एनडीए के साथ हो लिए।
कानून—व्यवस्था ने डैमेज की यूएसपी
इसबीच उनके सामने कुछ अंदरुनी चुनौतियां भी आ खड़ी हुईं। एक तो कानून व्यवस्था पर उनकी पकड़ ढीली हो गई, जो कभी उनकी यूएसपी हुआ करती थी। दूसरे भाजपा के साथ आने के कारण अल्पसंख्यकों में उन्होंने जो जगह बनाई थी, वह भी दांव पर लग गया। ऐसे में उन्होंने फिर लालू पर डोरे डालना शुरू कर दिया। लेकिन इस बार यह काम उनके बैकडोर सलाहकार प्रशांत किशोर ने किया। अंग्रेजी के एक अखबर ‘द टेलिग्राफ’ की मानें तो नीतीश कुमार के भरोसेमंद प्रशांत किशोर ने आधिकारिक तौर पर जेडीयू में शामिल होने से पहले तीन बार आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के बीच सुलह कराने की कोशिश की। एनडीए में वापसी के 9 महीने बाद ही नीतीश ने प्रशांत किशोर को लालू के पास भेजा।
एम्स में लालू से मिले थे प्रशांत किशोर
प्रशांत किशोर ने लालू यादव के साथ अप्रैल 2018 में पहली मुलाकात नयी दिल्ली एम्स में की। उस वक्त बिहार में सांप्रदायिक तनाव चरम पर था और बीजेपी के कई नेताओं पर अंगुलियां उठ रही थीं। प्रशांत किशोर ने लालू यादव से अप्रैल के अंतिम सप्ताह में मुलाकात के दौरान नीतीश कुमार के साथ वापस गठबंधन की बात कही, लेकिन बात नहीं बन सकी।
जुलाई में तेजस्वी यादव से मिले पीके
इसके बाद प्रशांत किशोर ने जुलाई में तेजस्वी यादव के साथ पटना में मुलाकात की। 2 जुलाई को दोनों नेताओं के बीच तेजस्वी के घर पर करीब एक घंटा बातचीत हुई थी। यहां गौर करने वाली बात यह है कि प्रशांत किशोर ने 2 जुलाई को तेजस्वीे से मीटिंग की और अगले ही दिन यानी 3 जुलाई को लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप ने कागज पर नो-इंट्री लिखकर नीतीश कुमार के नाम मीडिया में खुलेआम संदेश भेज दिया।
मुंबई हार्ट अस्पताल में लालू से मुलाकात
इसके बाद पीके ने तीसरी कोशिश तब की जब लालू यादव मुंबई हार्ट अस्पताल में अगस्त में भर्ती हुए। इस मुलाकात के दौरान लालू कुछ नरम जरूर पड़े, लेकिन वहां मौजूद राबड़ी और मीसा ने सख्त रवैया अख्तियार कर लिया। तेजस्वी और तेजप्रताप भी नीतीश से किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं हुए। लालू परिवार उनकी मौजूदा दुर्गति के लिए सीधे तौर पर नीतीश को जिम्मेवार मान रहा था। जब यहां बात नहीं बनी तब नीतीश ने एनडीए में पुख्ता सीट पाने की और फोकर कर लिया। आगे की कहानी में नया ट्वीस्ट पीके के जदयू में शामिल होने से आया। इस ट्वीस्ट ने नीतीश के रिपोर्ट कार्ड को और भी खतरनाक बना दिया। तभी तो राजनीतिक विश्लेषक यहां तक कहने लगे कि ‘एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा’। यानी एक तो नीतीश खुद कब क्या कर जाएं, उस पर अब भाजपा से खार खाए प्रशांत किशोर। बिहार एनडीए का तो भगवान ही मालिक।