बूथलूट से स्मार्ट डेमोक्रेसी की ओर बिहार

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कोरोना संक्रमण के बाद पूरी दुनिया में कामकाज का तरीका इस तरह बदला कि जीवन बचाना पहली प्राथमिकता हो गई। बिहार में इस साल अक्टूबर-नवंबर में संभावित चुनाव भी नई वास्तविकता से अवश्य प्रभावित होंगे। अब जब प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी अपने सहयोगियों-अधिकारियों के साथ पहले की तरह बैठकें नहीं कर डिजिटल माध्यम से वर्चुअल संवाद कर रहे हैं, तब भीड़भाड़ वाली चुनाव सभाएं कैसे संभव होंगी?

दिल्ली से गृहमंत्री अमित शाह और पटना से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में अपनी-अपनी पार्टी के पदाधिकारियों से वर्चुअल संवाद कर एक मॉडल प्रस्तुत करने का प्रयास किया कोरोना संकट के बीच इस तरह डिजिटल चुनाव प्रचार को अपनाया जा सकता है। दूसरी तरह बिहार के मुख्य विरोधी दल राजद, उसकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस और वामपंथी दलों ने वर्चुअल संवाद का विरोध कर दिया।

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विरोध में तर्क यह दिया गया कि वर्चुअल संवाद का तरीका ज्यादा खर्चीला है। यह तर्क गले उतरने लायक नहीं, क्योंकि पारंपरिक चुनाव सभाओं में भीड़ जुटाने से लेकर मंच व्यवस्था करने तक हर सभा पर लाखों रुपये का खर्च आता है। नेताओं की हवाई (हेलीकाप्टर) यात्रा और जमीनी यात्राओं पर भी करोड़ो रुपये बहाये जाते हैं। फिर, सबसे बड़ी चिंता खर्च की नहीं, लोगों को भीड़ से होने वाले संक्रमण से बचाने की है। इस मुद्दे पर भी विपक्ष का रुख नकारात्मकता से भरा लगता है।

चुनाव आयोग शारीरिक दूरी और संक्रमण से बचाव के नियमों का पालन करते हुए चुनाव कराने के प्रशासनिक विकल्पों पर विचार कर रहा है। लेकिन लालू प्रसाद की पार्टी नई वास्तविकता को नकारते हुए वर्चुअल संवाद का विरोध करने पर अड़ी है। उन्हें गरीब मतदाताओं की जान से नहीं, केवल सत्ता हथियाने से मतलब है।

बिहार सहित पूरे देश में जब कोरोना संक्रमण की चुनौती बनी हुई है, तब कम खर्चीले और ज्यादा सुरक्षित वर्चुअल रैली का विरोध उचित नहीं। लालू प्रसाद ने तो उस ईवीएम का भी विरोध किया, जिससे बूथलूट बंद हुई और गरीबों को वोट डालने के मौके मिले। आज वे उस वर्चुअल रैली का विरोध कर रहे हैं, जिससे बिना पेट्रोल-डीजल पर लाखों रुपये खर्च किये कम समय में लोगों से संवाद किया जा सकता है। सवाल यह है कि जो लोग पेट्रोल-डीजल बचाने के लिए साइकिल चलाते हुए फोटो पोस्ट करते हैं, वे वर्चुअल रैली का विरोध क्यों कर रहे हैं? .

कोरोना काल से पहले वाले दिन फिलहाल लौटने वाले नहीं। उन दिनों चुनावी रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ मंचासीन लोकप्रिय नेताओं को भाग्य विधाता समझती थी, नारे लगते थे, सभा स्थल को बैनर-पोस्टर-कटआउट से पाटकर प्रभाव दिखाया या जमाया जाता था। अब यह सारे खर्चीले और प्रदूषणकारी विकल्प जानलेवा सिद्ध हो सकते हैं। विपक्ष को लालटेन, बैलगाड़ी, बैलेट पेपर जैसे कालबाह्य साधनों के समर्थन में कुतर्क गढ़ने के बजाय ईवीएम और वर्चुअल रैली की वैज्ञानिक सोच के साथ खड़े होना चाहिए। प्रचार या मतदान के तरीके ज्यादा मायने नहीं रखते। जनता किसी दल या दलों के गठबंधन की रीति-नीति, ईमानदारी, कर्मठता, विश्वसनीयता और जनहित के मुद्दों पर उसके दृष्टिकोण के आधार पर सेवा का अवसर देती है, संवाद का तरीका कोई हो।

बिहार का मानस युगानुकूल परिवर्तन के लिए तैयार है। कोरोनाकाल में जिस प्रकार से ई-मीटिंग, फेसबुक लाइव, ऑनलाइन क्लासेस आदि का प्रचलन बढ़ा है उसको देखते हुए यह जाहिर है कि वर्चुअल रैली भारतीय चुनाव व्यवस्था में न्यू नार्मल होगी। सब कुछ ठीक रहा तो गणतंत्र की धरती बिहार ही स्मार्ट और डिजिटल डेमोक्रेसी का लांच पैड बनेगा।

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