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महापलायन के जख्म व चुनावी मुद्दा

राजद शासन के दौरान हुए नरसंहारों और भूमि संघर्षों ने गांव की अर्थव्यवस्था को चैपट कर दिया। चीनी मिलें, रोहतास का सीमेंट उद्योग और कटिहार का जूट उद्योग तो ध्वस्त हुआ ही, फिरौती-अपहरण उद्योग के चलते राज्य में नये उद्योग-धंधे भी पनप नहीं पाये।

कुमार दिनेश
(प्रधान संपादक, स्वत्व )

भिखारी ठाकुर के भोजपुरी नाटक बिदेसिया का नायक मजदूरी करने कलकत्ता (अब कोलकाता) जाता है। सौ साल पुरानी कहानी आज के बिहार पर भी सटीक बैठती है। पिछले तीन दशक में बिहारी मजदूर केरल से कश्मीर तक और असम से गुजरात तक, लगभग पूरे देश में पहुँच चुके हैं। लाकडाउन के दौरान बिहार-यूपी के इन प्रवासी मजदूरों को ही सबसे ज्यादा मुसीबतें उठानी पड़ीं।

रोजगार की तलाश में निकलने वाले लोगों के लिए मुंबई, पंजाब और दिल्ली पहली पसंद बने। दिल्ली में सबसे अधिक 61.8 लाख प्रवासियों की संख्या है। इसमें सबसे 28 लाख लोग अकेले उत्तर प्रदेश से हैं। उसके बाद बिहार का ही नंबर है।

60 लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर दिल्ली की अर्थव्यवस्था, कानून-व्यवस्था और राजनीति पर गहरा असर डालने की हैसियत में हैं। जिन मजदूरों को मुफ्त बिजली-पानी का प्रलोभन देकर वहां के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल शाहीनबाग प्रकरण के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा को बुरी तरह पराजित कर सत्ता में लौटे, उन्हीं मजदूरों को सत्तारूढ़ दल के लोगों ने लाॅकडाउन के समय भ्रम फैलाकर दिल्ली से बाहर करने का इंतजाम कर दिया। गृह राज्यों तक पहुँचाने की बस खुलने की अफवाह फैलाकर लाखों मजदूरों को लाकडाउन तोड़कर बस अड्डे पहुंचने के लिए उकसा दिया गया।

बसें तो थीं नहीं, अफरा-तफरी में मजदूरों को पैदल, साइकिल, ठेला या ट्रक-ट्रैक्टर जैसे जोखिम भरे साधनों से अप्रैल-मई की धूप में सैंकड़ों किलोमीटर लंबी सड़क यात्रा पर निकलना पड़ा। मजदूरों की यह दारुण पीड़ा मीडिया में छा गई। फोटो सेशन कराकर मोदी सरकार को बदनाम करने वाले नरेशन गढ़े जाने लगे। दिल्ली के फुटपाथ पर बैठ कर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने बदहाल लौटते मजदूरों के साथ बातचीत करने की फोटो खिंचवाई, लेकिन मदद कुछ नहीं की।

मजदूरों ने दिल्ली के चुनाव में गलत बटन दबाने का परिणाम भुगता!

विपक्ष ने लाॅकडाउन के समय मजदूरों-गरीबों को राहत देने के लिए किये गए सारे प्रयासों पर पानी फेरने के लिए मजदूरों की पीड़ा पर राजनीति की, लेकिन केजरीवाल सरकार की साजिश पर चुप्पी साध ली। मजदूरों ने दिल्ली के चुनाव में गलत बटन दबाने का परिणाम भुगता। बिहार से सामूहिक और सतत पलायन की बुनियाद भी गलत राजनीतिक फैसलों के कारण पड़ी थी। दिल्ली विधान सभा चुनाव में जिन्होंने ने मुफ्त बिजली-पानी के लिए केजरीवाल की पार्टी को वोट दिया।

1990 से 2004 तक जात-पात के नाम पर विकास-विरोधी लालू प्रसाद और राबड़ी देवी को ही सत्ता सौंपने की गलती कर रहे थे। 1980 के दशक की अस्थिरता और 1990 के बाद सामाजिक न्याय के रथ पर सवार लालू प्रसाद के अभ्युदय ने जिस तरह से विकास को धकिया कर राजनीतिक प्राथमिकता से बाहर कर दिया था, उससे बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ी।

नरसंहारों और भूमि संघर्षों ने गांव की अर्थव्यवस्था को चैपट कर दिया था

राजद शासन के दौरान हुए नरसंहारों और भूमि संघर्षों ने गांव की अर्थव्यवस्था को चैपट कर दिया। चीनी मिलें, रोहतास का सीमेंट उद्योग और कटिहार का जूट उद्योग तो ध्वस्त हुआ ही, फिरौती-अपहरण उद्योग के चलते राज्य में नये उद्योग-धंधे भी पनप नहीं पाये। उस दौर में शहरों में शाम होते ही दुकानें बंद हो जाती थीं। विकास के लिए जरूरी बिजली शहरों को भी औसतन केवल 8 घंटे ही मिलती थी। गांव अँधेरे में थे।

बिहार सबसे सस्ते श्रम का राष्ट्रीय आपूर्तिकर्ता बन गया

रसातल में पहुँची कानून-व्यवस्था ने शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में रोजगार के अवसर छीन लिये थे। न रोजगार के अवसर पैदा करने की फिक्र की गई, न रोजगार मांगने वालों की आबादी को बढ़ने से रोकने के कार्यक्रम लागू करने में कोई गंभीरता दिखायी गई। परिणाम यह कि देश में सबसे तेज जनसंख्या वृद्धि दर्ज करने वाला बिहार सबसे सस्ते श्रम का राष्ट्रीय आपूर्तिकर्ता बन गया।

लालू-राबड़ी की सरकार में श्रम, प्रतिभा और पूंजी का महापलायन

मानव संसाधन के प्रबंधन और आर्थिक विकास के दोहरे मोर्चे पर लालू-राबड़ी की सरकार इतनी विफल रही कि उसके 15 साल में श्रम, प्रतिभा और पूंजी का महापलायन झेलना पड़ा। जिन लोगों ने बिहार को पलायन का दर्द दिया, वे ही अब लॉकडाउन के समय मजदूरों के हमदर्द बनने के लिए 1000 बसें भेजने को उतावले दिख रहे थे। अंततः बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अनुरोध पर केंद्र सरकार ने 4000 विशेष ट्रेनों का परिचालन कर एक मई से विभिन्न राज्यों में फँसे 1 करोड़ मजदूरों को बिना किराया लिए उनके घरों तक पहुंचाया। 1506 ट्रेनों से 21 लाख बिहारी मजदूर भी वापस लाये गए।

बिहार में इस वर्ष विधानसभा के चुनाव होने हैं, इसलिए पलायन, उसके सामाजिक-सियासी कारण, मजदूरों की वापसी, लॉकडाउन के दौरान गरीबों की मदद, क्वरंटाइन सेंटर की व्यवस्था, कोरोना जांच और वापस लौटे मजदूरों को रोजगार देने में नीतीश सरकार की तत्परता का चुनावी मुद्दा बनना तय है।