मधुबनी में बने जनेऊ की हो रही विदेशों में भारी मांग

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मधुबनी : मधुबनी में जनेऊ बनाने का काम प्राचीन काल से महिलाएं करती आ रही हैं, लेकिन बिहार के मधुबनी जिले के पांच दर्जन से अधिक गांवों में यह काम बड़े पैमाने पर होता है। वहां के बने जनेऊ कुछ तो खास हैं, कि उनकी मांग विदशों तक है। सौ से अधिक महिलाएं इस काम में स्‍थाई रूप से लगीं हैं। कोरोना महामारी के संकट काल में लॉकडाउन के दौरान भी घर से चलने वाला यह काम जारी है।

सनातन धर्म के विभिन्‍न संस्‍कारों में उपनयन (यज्ञोपवीत) भी एक संस्कार है। उपनयन का अर्थ है ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। प्राचीनकाल में शिष्य, संत और ब्राह्मण को दीक्षा देने में जनेऊ धारण करना होता था। वर्ण व्‍यवस्‍था से जोड़कर देखने और इससे जुड़ी आलोचनाओं से हटकर देखें तो खास वर्ग के लिए यह आस्‍था से जुड़ा मामला है। जब मांग है तो आपूर्ति तो होगी ही. मधुबनी के गांवों में जनेऊ का निर्माण और व्‍यापार इसी मांग व आपूर्ति के नियम पर आधारित है।

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क्यों खास है मधुबनी का जनेऊ

इस जनेऊ के सूत बापू के स्वदेशी आंदोलन के प्रतीक चरखा (या तकली) से काटे जाते हैं। खादी के सूत से बने ये जनेऊ अपनी मजबूती के कारण लंबे समय तक चलते हैं। इसकी बड़ी खासियत पतला होना है। एक जमाने में भारत के बने मलमल का पूरा थान अंगूठी के भीतर से निकल जाता था। यह जनेऊ भी इतना पतला होता है कि बड़ी इलायची के छिलके (खोल) के भीतर समा जाए।

जनेऊ को मल-मूत्र त्याग के समय कान पर लपेटा जाता है। माना जाता है कि शौच के समय जनेऊ को कान के ऊपर लपेटने से उसके पास से गुजरने वाली उन नसों पर दबाव पड़ता है, जिनका संबंध सीधे आंतों से होता है। इससे कब्ज की समस्या दूर होती है। कान पर दबाव पड़ने से दिमाग की वे नसें भी खुल जाती हैं, जिनका संबंध स्मरण शक्ति से होता है। शौच के समय नसों पर पड़ने वाले इस दबाव के कारण रक्‍तचाप पर नियंत्रण होता है, तथा मस्तिष्‍क आघात का खतरा भी कम हो जाता है। माना जाता है कि जनेऊ जितना पतला होगा, नसों पर दबाव उतना ही अधिक डालेगा।

इस खास जनेऊ के निर्माण के लिए मुख्य रूप से चरखा, रूई, सूत व रंग की जरूरत होती है. 10 से 15 हजार की लागत से इसका उत्पादन शुरू किया जा सकता है। वैसे, ये सूत स्थानीय खादी भंडार में भी उपलब्ध हो जाते हैं। वहीं, मांग को देखते हुए स्‍थानीय बाजार में भी ऐसे सूत उपलब्‍ध हैं।

मधुबनी के राजनगर प्रखंड के मंगरौनी गांव की निवासी रीता पाठक ऐसे जनेऊ बनाती हैं। वो बताती हैं कि करीब सौ वर्ष पुराना चरखा व तकली उन्हें ससुराल में धरोहर के रूप में मिले हैं। वे प्रतिदिन 30 से 50 जनेऊ बना लेती हैं। लॉकडाउन अवधि में तो उन्‍होंने 12 सौ जनेऊ तैयार किए। रीता पाठक बताती हैं कि एक महिला हर साल 12 से 13 हजार तक जनेऊ तैयार कर लेती है।

मधुबनी शहर के गिलेशन बाजार के जनेऊ विक्रेता प्रशांत कुमार कहते हैं कि चूंकि जनेऊ का खरीदार सीमित वर्ग के लोग हैं, इसलिए आय तो अधिक नहीं होती, लेकिन अन्‍य सामानों के साथ इसकी बिक्री भी होती है। जहां तक जनेऊ बनाने वालों की बात है, बकौल रीता पाठक, सालाना 50 से 75 हजार रुपये की आमदनी हो जाती है।

मधुबनी के उम्दा क्वालिटी के इस जनेऊ की मांग विदेशों में भी है। मधुबनी के जनेऊ विक्रेता युगल किशोर महथा ने बताया कि इसकी मांग हमेशा बनी रहती है। हां, मांगलिक कार्यों, लग्न व उपनयन के दिनों में मांग बढ़ जाती है। इसकी आपूर्ति जिले के गांवों से होती है, ज्यादा मांग होने पर आर्डर देकर भी बनवाते हैं। विदेश से आने वाले अप्रवासी यहीं से जनेऊ लेकर जाते हैं। स्थानीय बाजार में इसकी कीमत आठ से 12 रुपये, जबकि महानगरों व विदेशों में 30 से 40 रुपये तक होती है।

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