मराठा साम्राज्य के सूबेदार तानाजी मलुसरे के पराक्रम पर आधारित ओम राउत की फिल्म ‘तानाजी : दी अनसंग वॉरियर’ 2020 की पहली बड़ी रिलीज है। तानाजी के वैभवपूर्ण व्यक्तित्व के अनुरूप ही फिल्म को भव्य बनाया गया है। दिग्गज अभिनेता अजय देवगन की मेहनत व अनुभव से तानाजी का किरदार प्रभावी रूप में सामने आता है और थ्रीडी तकनीक की मदद से दर्शकों को सम्मोहित कर लेता है।
सामान्य भारतीय युवा दर्शक के मन में यह धारणा है कि बड़े कैनवस पर वीएफएक्स व 3—डी का मजा हॉलीवुड स्टुडियो की फिल्में ही दे सकते हैं। ओम राउत ने सीमित बजट में वैसी भव्यता रचकर प्रशंसा के पात्र बने हैं। अमेरिकी फिल्म निर्माण कंपनियों ने तकनीक की मदद से पहाड़ जैसे तमाशे पर्दे पर दिखाते हैं। मायावी, पाश्विक, नरपिशाची किरदारों को कोरी काल्पनिक कहानियों के माध्यम से परोसा जाता है। तेज पार्श्वध्वनि, जानदार वीएफएक्स इसमें मदद करते हैं। डर, वेदना, वासना, प्रतिशोध के भाव लिए हिंसा के अतिरेक वाले दृश्य किशोरों के मन को उद्वेलित करते हैं। यही कारण है कि मूल रूप से अंग्रेजी में बनी अमेरिकी फिल्में भारतीय भाषाओं में डब कर रिलीज की जाती है, तो युवा उन्हें देखने के लिए टृट पड़ते हैं। कभी—कभी इनके साथ रिलीज होने वाली भारतीय फिल्में इनकी कमाई के सामने घुटने टेक देती हैं। भारतीय सिने बाजार को विगत दस वर्षों में विदेशी फिल्मों ने खूब प्रभावित किया है। इनके घुसपैठ से बड़े फिल्मकार भी चिंतित होते हुए इन पर नियंत्रण की वकालत करते हैं, ताकि भारतीय फिल्मों का घरेलू बाजार सुरक्षित रहे।
आप सोच सकते हैं कि तानाजी की समीक्षा में अमेरिकी फिल्मों की चर्चा क्यों? दरअसल, ओम राउत की फिल्म ‘तानाजी : दी अनसंग वॉरियर’ ने इन सारे सवालों के जवाब देने की कोशिश की है। …और इसमें तानाजी अकेली नहीं है। उसके साथ बाजीराव—मस्तानी, पद्मावत, पानीपत, मणिकर्णिका जैसी कई फिल्में हैं, जो वर्तमान पीढ़ी के समक्ष इतिहास को प्रभावी ढंग से पेश कर रही हैं। सिनेमाइ स्वतंत्रता के नाम पर कहानियों से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ जरूर होती है। लेकिन, मोटे तौर परये फिल्में अतीत की जुगाली करने का एक अवसर तो देती ही हैं। पिछले महीने आशुतोष गोवारिकर ने ‘पानीपत’ में अपनी क्षमता के अनुरूप परिणाम नहीं दिया। तकनीक से लेकर बुनावट तक में तानाजी पानीपत से आगे है। तानाजी के रिलीज से पहले अजय देवगन ने एक साक्षात्कार में महत्वपूर्ण बात कही थी। उसका जिक्र यहां जरूरी है। अजय ने कहा था कि हॉलीवुड के पास ज्यादा पैसा है, तो हमारे पास रचनात्मकता, प्रतिभा, धैर्य, बुद्धि व साहस है। इनके बल पर हम वैश्विक फिल्में बना सकते हैं। उनका यह आत्मविश्वास फिल्म की ठोस व बारीक बनावट में झलकता है। सिर्फ नाम 3—डी नहीं है। प्रभावी है, लेकिन बचकाना नहीं। जैसे आरंभ में पहाड़ की कंदरा में युद्धरत मराठों का दृश्य या जलमार्ग से उदयभान के कूच करने का दृश्य, राउत से कसावट बनाकर रखी। सवा दो घंटे में पीरियड फिल्म को समेटना समय की मांग है। ओम से अन्य फिल्मकारों को सीखना चाहिए।
पानीपत में जो गलती गोवारिकर ने की, उसे राउत ने दोहराया नहीं। परिणाम है कि कहानी में बदलाव की गुंजाइश न रहते हुए भी राउत ने पूरी फिल्म के दौरान नाटकीयता बरकरार रखी, जो व्यवसायिक रूप से एक सफल फिल्म के लिए जरूरी है। धर्मेंद्र शर्मा ने एडिटिंग ऐसी की है कि कोई भी दृश्य अनावश्यक लंबाई को धारण नहीं करते हैं। कीको नकाहारा ने संभवत: पहली बार किसी पीरियड फिल्म को अपने लेंस से फिल्माया है। रंग संयोजन से लेकर प्रकाश संतुलन तक में उन्होंने दृश्यों को प्रभावी बनाने की कोशिश की है। 17वीं सदी को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करने के लिए सेट डिजाइनर श्रीराम अयंगर व सुजीत सावंत ने जान डाल दी है। बाजीराव—मस्तानी व मणिकर्णिका के सेट बनाने के अनुभव दोनों को इस फिल्म में काम आए। अजय—अतुल का संगीत औसत है, जिसे कुछ समय बाद भूला दिया जाएगा।
खचाखच भरे हॉल में अजय की जादूई आंखे अपना कमाल दिखातीं हैं। उनके देखने भर से तालिया बजती हैं। डायलॉग की तो बात ही छोड़ दीजिए। ‘दी लीजेंड आॅफ भगत सिंह’ में ऐतिहासिक किरदार निभाने के दो दशक बाद वे पीरियड फिल्म कर रहे हैं। सैफ को मुद्दतों बाद किसी सफल फिल्म में सहभागी होने का अवसर मिला है और उन्होंने इसका सही उपयोग भी किया है। लंगडा त्यागी के किरदार के बाद यह उनका सबसे अधिक यादगार किरदार होगा। लेकिन, उनके अभिनय में पद्मावत के रनवीर सिंह की झलक मिल रही है। काजोल को लंबे समय बाद अजय के साथ देखा जाना सुखद है। शरद केलकर ने शिवाजी राजे के किरदार के साथ न्याय किया है। शिवाजी के आभामंडल को सिनेमाघर के आखिरी कोने तक पसारने के लिए उनकी तारीफ होनी चाहिए।
चार साल पहले निर्देशक ओम राउत से मुंबई में लंबी बातचीत हुई थी। उस समय वे अपनी पहली फिल्म ‘लोकमान्य’ (मराठी) को लेकर चर्चा में थे। पहली फिल्म के निर्देशन में उनका समर्पण देखकर ही अंदाजा हो गया था कि ओम भारतीय सिनेमा को गर्व करने लायक मौके देेंगे। तानाजी के माध्यम से उन्होंने ऐसा मौका दिया है। ओम ने भारत की गौरवशाली इतिहास के एक महत्वपूर्ण खंड को पर्दे पर प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। यह भारतवर्ष के शौर्य का सिनेमाई उद्घोष है। ओम ने सिनेशास्त्र की सदुपयोगिता सिद्ध की है। बधाई।