लेख्य मंजूषा के कार्यक्रम में जुटे देशभर के साहित्यकार

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पटना : आज के पाठक टीवी, मोबाइल, इंटरनेट में उलझे हुए हैं। आज भी अच्छी रचनाएं लिखी जा रही हैं। समय के साथ साहित्य में बदलाव आता है। आज के परिदृश्य में जीवन को चलाने के लिए धनोपार्जन जरूरी हो गया है। इसलिए आज के साहित्यकारों की तुलना हम सुर, कबीर या तुलसीदास जी के साथ नहीं कर सकते हैं। उक्त बातें डॉ. सतीश राज पुष्करणा ने हिंदी दिवस पखवाड़ा के तहत ‘समाज सौगात-सौ के जज्बात’ के तहत साहित्यिक संस्था ‘लेख्य -मंजूषा’ के कार्यक्रम में कही।
लेख्य-मंजूषा के इस बार के कार्यक्रम में आये हिंदी साहित्य के सात अतिथियों से सात सवाल संजय कुमार सिंह ने पूछे। जिसके जवाब में सब दर्शक संतुष्ट दिखे। कार्यक्रम के दूसरे सत्र में देश भर से आए सौ कवियें ने काव्य पाठ किया। काव्य रचना के बारे में बात करते श्री विश्वमोहन शर्मा ने कहा कि आज के युवा छंदमुक्त कविताएं अधिक लिख रहे हैं। कवि एवं संस्था के उपाध्यक्ष संजय ने सुनाया कि “मैं तन्हा हूं, असंख्य तारों के बीच, एक गुमशुदा टिमटिमाता सितारा”।
संजय कुंदन की शायरी ने खुब वाहवाही बटोरी तो समीर परिमल ने सुनाया कि मेरे अशआर देते हैं गवाही, कोई ग़म यार का पहलूनशीं है’ से माहौल शायराना हो गया।
ध्रुव गुप्त ने कविता पढ़ा कि ‘काश ऐसा होता कि, थोड़ा और मुलायम होता, हमारे लिए यह देश, धुंए का ना होता यह आसमान’। हेमंत हिम ने पढ़ा कि काश कोई समझा पाए हमें,कि हवाएं यूं ही नहीं बहती,और हम आदमी हैं आदमी, हवा के खिलौने नहीं।
इस मौके पर उपस्थित अतिथियों में समीर परिमल, डॉ.मंगला रानी, ध्रुव गुप्त इत्यादि मौजूद थे। सभी अतिथियों को संस्था के तरफ से मोमेंटो प्रदान किया गया। काव्य पाठ में शामिल सभी प्रतिभागियों को अतिथियों के हाथों प्रमाण-पत्र दिया गया। इस मौके पर लेख्य-मंजूषा की त्रिमासिक पत्रिका ‘साहित्यिक स्पंदन’ का लोकार्पण अतिथियों, संस्था की अध्यक्ष विभा रानी श्रीवास्तव, मंच संचालक संजय ‘संच’ ने किया। इस बार की पत्रिका के संपादक मो. नसीम अख्तर थे।

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