यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि इस संसार में मनुष्य ऐसा प्राणी है, जिसकी सर्वाधिक उन्नति कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं। शैशवकाल में बोलने, चलने आदि की क्रियाओं से लेकर बड़े होने तक सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसे पराश्रित ही रहना होता है, दूसरे ही उसके मार्गदर्शक होते हैं। सृष्टि के आदि-वेदों के आविर्भाव से लेकर आज-तक मानव को जैसा वातावरण, समाज व शिक्षा मिलती रही वह वैसा ही बनता चला गया, क्योंकि ये ही वे माध्यम हैं, जिनसे एक बच्चा कृत्रिम उन्नति करता है और बाद में अपने ज्ञान तथा अनुभव के आधार पर ऊँचाइयों को छूता चला जाता है। कहा जा सकता है कि मानव की उन्नति की साधिका शिक्षा है।
बच्चों का भविष्य उनको मिलने वाली प्राथमिक शिक्षा पर निर्भर करता है अर्थात हम अपने बच्चों को प्रारम्भिक शिक्षा किस प्रकार की देते हैं, उनके भावी भविष्य का निर्धारण उसी पर होता है। हालांकि वर्तमान में शिक्षा का उद्देश्य संकुचित होकर येन-केन प्रकारेण एक अच्छी-सी नौकरी पा लेने तक ही सीमित होकर रह गया है। आज शिक्षा की सबसे बड़ी चुनौती है- उसका जीवनोन्मुखी न होकर परीक्षोन्मुखी होना।
परीक्षा ने बच्चों को महज किताबी कीड़ा बना दिया है। जीवन के लिए शिक्षा एक मुहावरा मात्र बनकर रह गयी है। ज्ञान की दो दुनिया बना दी गई हैं। एक, स्कूली ज्ञान और दूसरा, बाहरी जीवन का ज्ञान। ऐसा वातावरण तैयार कर दिया गया है, जैसे कि स्कूल का ज्ञान बाहरी जीवन के ज्ञान से श्रेष्ठ और अलग है। यह सोच विकसित हुई कि शिक्षा इसलिए प्राप्त की जाए ताकि पढ़-लिखकर आने वाले समय में अच्छी नौकरी मिल सके। वहीं से शिक्षा का उद्देश्य संकुचित हो गया। आज बाजार अलग-अलग गुणवत्ता वाली शिक्षा को लेकर उपस्थित हो रहा है। कम पैसे वालों के लिए अलग शिक्षा है और अधिक पैसों वालों के लिए अलग तरह की। बाजार में बिक रही शिक्षा का मूल्यों से कुछ लेना-देना नहीं है। आज की शिक्षा एक कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक या प्रशासक तो तैयार कर रही है, पर उसे एक संवेदनशील इंसान नहीं बना रही है। क्या शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य यही है?
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था मैकाले की शिक्षा व्यवस्था, जिसमें मनुष्य निर्माण नहीं मशीनों का निर्माण हो रहा है। प्दकपंद म्कनबंजपवद ।बज की ड्राफ्टिंग के पहले लोर्ड मैकोले ने भारत की शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण अपने दो अधिकारी ळ.ॅ.स्पजदंत और ज्ीवउंे डनदतव से कराया था। स्पजदंत (उत्तर भारत) का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97 प्रतिशत साक्षरता है और डनदतव (दक्षिण भारत) का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 प्रतिशत साक्षरता है और उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है और मैकोले का स्पष्ट कहना था कि:
‘‘भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी देसी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी। लेकिन, दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे।’’
मैकाले ने सर्वप्रथम गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया। फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया। जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता, जो समाज के तरफ से होती थी वो गैरकानूनी हो गयी। और इस देश के गुरुकुलों को घूम-घूम कर खत्म कर दिया। 1850 तक इस देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे 7 लाख 50 हजार। गुरुकुलों को खत्म कर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया। फिर कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल (प्री स्कूल) खोला गया। इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता, बम्बई और मद्रास यूनिवर्सिटी की स्थापना की गयी। महाविद्यालयों से निकलने वाले लोगों ने अपना जीवन स्तर तो ऊँचा उठाया किन्तु वह देश की सभ्यता के बिल्कुल विरुद्ध होती चली जा रही है।
आजादी के बाद ‘कोठारी आयोग’ ने प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा को मातृभाषा के माध्यम से संचालित करने का प्रस्ताव दिया, विडम्बना है कि शिक्षा के निजीकरण को लगातार बढ़ावा दिया गया और शिक्षा को बाजार के हवाले सौंप दिया गया। आजादी के बाद से ही शिक्षा में जवाबदेही, पारदर्शिता, जैसे मूल्य पहले भी कम मात्रा में थे, अब तो बिल्कुल ही नगण्य जैसी अवस्था में है।
शिक्षा जैसे गंभीर विषय को कितने हल्के में लिया जा रहा है, यह इस आंकड़े को देखने के बाद समझ आती है कि 2014-15 में भारत के कुल राष्ट्रीय आय का 1ः हिस्सा शिक्षा के लिए आवंटित किया गया था, जो 2017-18 के लिए मात्र 0.62ः पर सिमट गया, जबकि आयकर के माध्यम से पहले से ज्यादा शिक्षा अधिभार लगा कर सालाना मोटी रकम वसूली गयी। विश्वस्तरीय शिक्षण संस्थान का स्वप्न महज एक नारा भर बनकर रह गया।
‘प्रथम’ नामक एन.जी.ओ अपने वार्षिक रिपोर्ट में अनेक चिंताजनक आंकड़ों को रेखांकित किया है। यह रिपोर्ट देश के 596 जिलों के 3,54,944 परिवारों के 3 से 16 साल की उम्र के 5,46,527 बच्चों के सर्वेक्षण पर आधारित है। बिहार में सरकारी विद्यालय के 60 प्रतिशत कक्षा 8 के बच्चे हिंदी की पुस्तक का ठीक उच्चारण नहीं कर सकते, साधारण गणित के सवाल हल करना नहीं जानते। 32 प्रतिशत शिक्षकों की निर्धारित योग्यता पर असफल पाए गए हैं।
नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय जैसी महान प्राचीनतम थाती रखने वाला 21वीं सदी के बिहार की स्थिति और भी दयनीय एवं भयावह है। यहां परीक्षा संपन्न कराना और परीक्षा देना बकायदा युद्ध जैसी नौबत है। अराजक भीड़ अपनी मर्जी, अपना कानून चलाना जानती है। चोरी की बुनियाद मैट्रिक से बहुत पहले पड़ जाती है।
बिहार के सरकारी आंकड़ों में- प्राथमिक और उच्च-प्राथमिक शिक्षा में सुधार की प्रक्रिया चल रही है। एक दशक पहले 2005 में 6 से 14 आयु वर्ग के 12.50ः बच्चे स्कूल से बाहर थे हालाकि यह संख्या अब घट कर 1.72 प्रतिशत रह गई है। स्कॉलरशिप, ड्रेस, मिड-डे मील, साईकिल जैसी योजनाओं के कारण स्कूलों में बच्चों की मौजूदगी बढ़ी है, आधारभूत-संरचना भी मजबूत किया जा रहा है। इसके वावजूद शिक्षा एवं शिक्षकों की गुणवत्ता दिन प्रतिदिन घटती जा रही है।
पिछले एक दशक के अंतराल में करीब 21,067 नए प्राथमिक स्कूल खोले गए जबकि 19,581 प्राथमिक स्कूलों को मिडिल स्कूल में उत्क्रमित(अपग्रेड)कर दिया गया। राज्य में कुल 69,911 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूल है। छात्र-शिक्षक के अनुपात को दुरुस्त करने की दिशा में प्रयास हुए हैं। राज्य में करीब 3.5 लाख शिक्षकों की बहाली हुई है हालांकि यह राष्ट्रीय मानक से पीछे हैं।
उच्चतर शिक्षा की स्थिति चिंतनीय है। शिक्षकों के 12,434 स्वीकृत पदों में केवल 6808 शिक्षक कार्यरत है, बाकी के 45 फीसदी पद खाली हैं। स्वीकृत पदों में 30 प्रतिशत सीटों की कटौती कर दी गई है। उच्चतर शिक्षा में बिहार का कुल नामांकन अनुपात राष्ट्रीय औसत से आधा है देश में यह आंकड़ा 23.6 प्रतिशत है जबकि बिहार में यह आंकड़ा 13 प्रतिशत है। दूसरे राज्यों की तुलना में राज्य के विश्वविद्यालय और कॉलेज काफी कमजोर रहे हैं।
जिस बिहार ने भारत को विश्वगुरु होने का गौरव दिलाया था, जिस समाज के पास शिक्षा की अलख जगाने की अकूत ललक थी, वह कहाँ छूट गई, इसको खोजना होगा। पूरे देश को लगातार कई वर्षों से सबसे ज्यादा आई.ए.एस. देने वाला, सबसे ज्यादा संख्या में अपने छात्रों को आई.आई.टी. में भेजने वाला राज्य-बिहार के शिक्षण व्यवस्थाओं में ऐसी कौन सी समस्या है जिसने यहाँ की शिक्षण संस्थाओं की जड़ों को दीमक ने चाट लिया है। शिक्षा के क्षेत्र में विफलता ने राज्य को अनाथ जैसी स्थिति में खड़ा कर दिया है। आज कोई भी इस असफलता की जिम्मेवारी लेने को तैयार नहीं है। सरकार, शिक्षक, प्रबंधन और अभिभावक एक-दूसरे के पाले में गेंद फेंक अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाते हैं।
शिक्षा के मूल केंद्र विद्यालय (प्राथमिक) होते हैं और शिक्षक उसकी धुरी। बिहार के तमाम तरह के शिक्षकों की नियुक्ति प्रक्रिया एवं शिक्षकों की योग्यता पर कुछ भी लिखना समय को व्यर्थ करने के समान है। बिहार में ‘शिक्षक-छात्र और स्वाध्याय’ का आपसी संबंध ठीक उसी प्रकार है जैसे ‘सांड और लाल कपड़े’ का। बहुत दुःख होता है यह लिखते हुए कि बिहार के 80ः शिक्षकों को (प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक) को अपने सम्पूर्ण पाठ्यक्रम की न तो जानकारी ही होती है न वे अपने विषय के 10 विश्वस्तरीय पुस्तक के नाम बता सकने का सामर्थ्य रखते हैं। महाविद्यालय के शिक्षक जहाँ सिर्फ पैसे के लिए उत्तर-पुस्तिका जांचने में ही व्यस्त रहते हैं, वहीं दूसरी तरफ माननीय सर्वोच्च न्यायलय के दिशा निर्देश को दरकिनार कर तमाम विद्यालयों के शिक्षक-शिक्षिकाओं को चुनाव कार्य, विभिन्न प्रकार के टीकाकरण, जनगणना जैसे शिक्षा के बनिस्बत कम महत्वपूर्ण कार्यों में व्यस्त रखा जाता है। क्वालिटी नहीं, क्वांटीटी का विकास हो रहा है।
आज बिहार में शिक्षा की स्थिति दयनीय है, और उसके नाम पर रह जिन परतन्त्रताओं का पोषण किया जाता है, उनमें ‘एक स्वतंत्र और स्वस्थ मनुष्य का जन्म संभव नहीं है।‘ शिक्षा ने मनुष्य को प्रकृति से अलग कर दिया। लेकिन, संस्कृति उससे पैदा न हो सकी, पैदा हुई- विकृति। इसी विकृति को प्रत्येक पीढ़ी नई पीढ़ियों पर थोपने का कार्य कर रही है, जिसके कारण मानवता खतरे में पड़ गई है। इसका मूलभूत कारण शिक्षा में ही निहित है।
आधुनिक शिक्षा प्रणाली और समाज का एक ही दिशा- अर्थाशक्ति की अहर्निश चिन्तन है। विशाल उदारवृत्ति यहाँ नहीं है, अतः स्वार्थीवृत्ति कार्य करती है। सात पीढ़ियों तक के लिए भण्डार भरने की प्रवृत्ति यहाँ है। ऐसे में जहाँ स्वार्थ होगा वहाँ समाज, राष्ट्र व पर्यावरण गौण हो जाते हैं। जिसके प्रभाव से सामाजिक ताना-बाना विखण्डित हो रहा है। स्वामी विवेकानंद ने ठीक ही कहा है कि ‘शिक्षा जीवन की सम्पूर्ण शिक्षा है और सम्पूर्ण जो मानव के अन्दर गुप्त रूप से विद्यमान रहती है, उसे प्राप्त करना शिक्षा का कार्य है।
कालिदास के रघुवंश के ‘‘शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणा। वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजा।।’’- जैसे वाक्य पुनः भारत के भाल का शृंगार बन जायेंगे। अर्थात जिसने भी अपने बचपन में समुचित शिक्षा ग्रहण किया वह अपनी युवावस्था में जीवन की वस्तुओं और सुखों का उपभोग किया वह अपने प्रोढ़ावस्था को एक मुनि की तरह बिताया और अपने अंतिम दिनों को योगी की तरह एकांतवास में व्यतीत किया।
डाॅ. नीरज कृष्ण