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मंथन

अनथक विद्रोही

विद्रोह, विवाद और सफलता से
सजी जाॅर्ज फर्नांडिस की जिंदगी

किसी बुद्धिमान इंसान ने कहा है – जनता हमेशा शांति चाहती है। कई बार शांति के लिए वह गुलामी भी स्वीकार लेती है। ऐसे में यदि जनता को आंदोलन और विद्रोह के लिए तैयार कर लिया जाए, लेकिन आंदोलन जल्द ना खत्म हो तो वह अपने नेता को ही अपना दुश्मन और शांति को भंग करने वाला मानने लगती है. भारत में इस उक्ति पर सटीक बैठने वाले राजनीतिक किरदार थे जॉर्ज फर्नांडिस। एक वक्त उन्हें गरीबों का मसीहा कहा जाता था। लेकिन, जॉर्ज फर्नांडिस के राजनीतिक जीवन के आखिरी दिनों में उन पर भ्रष्टाचार के तमाम आरोप भी लगे। चाहे कोका कोला हो या आईबीएम का देश निकाला, रक्षा सौदों में गड़बड़ियां हों या संघ की आंतरिक राजनीति में दखल देने का मसला या फिर जया जेटली से संबंध, लोगों ने उन्हें गलत ही माना। विरोधाभास इस हद तक साफ था कि परमाणु बमों के विरोधी जॉर्ज के रक्षा मंत्री रहते भारत ने परमाणु बम का परीक्षण किया। एक दिन ऐसा आया जब जॉर्ज का नाम धूमिल होते-होते भारतीय राजनीति के आकाश से ओझल हो गया। इसके बाद जॉर्ज क्या कर रहे हैं यह जानना लोगों के लिए जरूरी नहीं रह गया। और कभी-कभी उनसे जुड़ी कोई खबर आती भी थी तो उनकी पारिवारिक कलह की। या फिर ‘एक था जॉर्ज’ सरीखे शीर्षक से किसी पत्र-पत्रिका में लिखा कोई लेख। लेकिन, फिर भी भारत का ये ‘अनथक विद्रोही’ हमेशा याद किये जायेंगे।

दो उपनामों वाला शुरुआती जॉर्ज:

तीन जून 1930 को जन्मे जॉर्ज फर्नांडिस 10 भाषाओं के जानकार थे – हिंदी, अंग्रेजी, तमिल, मराठी, कन्नड़, उर्दू, मलयाली, तुलु, कोंकणी और लैटिन। उनकी मां किंग जॉर्ज फिफ्थ की बड़ी प्रशंसक थीं। उन्हीं के नाम पर अपने छह बच्चों में से सबसे बड़े का नाम उन्होंने जॉर्ज रखा। मंगलौर में पले-बढ़े फर्नांडिस जब 16 साल के हुए तो एक क्रिश्चियन मिशनरी में पादरी बनने की शिक्षा लेने भेजे गए। पर चर्च में पाखंड देखकर उनका उससे मोहभंग हो गया। उन्होंने 18 साल की उम्र में चर्च छोड़ दिया और रोजगार की तलाश में बंबई चले आए। जॉर्ज ने खुद बताया था कि इस दौरान वे चैपाटी की बेंच पर सोया करते थे और लगातार सोशलिस्ट पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते थे। फर्नांडिस की शुरुआती छवि एक जबरदस्त विद्रोही की थी। उस वक्त मुखर वक्ता राम मनोहर लोहिया, फर्नांडिस की प्रेरणा थे। 1950 आते-आते वे टैक्सी ड्राइवर यूनियन के बेताज बादशाह बन गए। बिखरे बाल, और पतले चेहरे वाले फर्नांडिस, तुड़े-मुड़े खादी के कुर्ते-पायजामे, घिसी हुई चप्पलों और चश्मे में खांटी एक्टिविस्ट लगा करते थे। कुछ लोग तभी से उन्हें ‘अनथक विद्रोही’ (रिबेल विद्आउट ए पॉज) कहने लगे थे। भले ही मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लोग उस वक्त फर्नांडिस को बदमाश और तोड़-फोड़ करने वाला मानते हों पर बंबई के सैकड़ों-हजारों गरीबों के लिए वे एक हीरो थे, मसीहा थे। इसी दौरान 1967 के लोकसभा चुनावों में वे उस समय के बड़े कांग्रेसी नेताओं में से एक एसके पाटिल के सामने मैदान में उतरे। बॉम्बे साउथ की इस सीट से जब उन्होंने पाटिल को हराया तो लोग उन्हें ‘जॉर्ज द जायंट किलर’ भी कहने लगे।

देश की सबसे बड़ी हड़ताल

1973 में फर्नांडिस ‘ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन’ के चेयरमैन चुने गए। इंडियन रेलवे में उस वक्त करीब 14 लाख लोग काम किया करते थे। यानी भारत कुल संगठित क्षेत्र के करीब सात फीसदी। रेलवे कामगार कई सालों से सरकार से कुछ जरूरी मांगें कर रहे थे। पर सरकार उन पर ध्यान नहीं दे रही थी। ऐसे में जॉर्ज ने आठ मई, 1974 को देशव्यापी रेल हड़ताल का आह्वान किया। रेल का चक्का जाम हो गया। कई दिनों तक रेलवे का सारा काम ठप्प रहा। न तो कोई आदमी कहीं जा पा रहा था और न ही सामान। पहले तो सरकार ने इस ध्यान नहीं दिया। लेकिन यह यूनियनों का स्वर्णिम दौर था। कुछ ही वक्त में इस हड़ताल में रेलवे कर्मचारियों के साथ इलेक्ट्रिसिटी वर्कर्स, ट्रांसपोर्ट वर्कर्स और टैक्सी चलाने वाले भी जुड़ गए तो सरकार की जान सांसत में आ गई। ऐसे में उसने पूरी कड़ाई के साथ आंदोलन को कुचलते हुए 30 हजार लोगों को गिरफ्तार कर लिया। इनमें जॉर्ज फर्नांडिस भी शामिल थे। इस दौरान हजारों को नौकरी और रेलवे की सरकारी कॉलोनियों से बेदखल कर दिया गया। कई जगह तो आर्मी तक बुलानी पड़ी। इस निर्ममता का असर दिखा और तीन हफ्ते के अंदर हड़ताल खत्म हो गई। लेकिन इंदिरा गांधी को इसका हर्जाना भी भुगतना पड़ा और फिर वे जीते-जी कभी मजदूरों-कामगारों के वोट नहीं पा सकीं। हालांकि इंदिरा गांधी ने गरीबी और देश में बढ़ती मंहगाई का हवाला देकर अपने इस कदम के बचाव का प्रयास किया। उन्होंने हड़ताल को देश में बढ़ती हिंसा और अनुशासनहीनता का उदाहरण बताया। बाद में आपातकाल को सही ठहराने के लिए भी वे इस हड़ताल का उदाहरण दिया करती थीं।

आपातकाल में मछुआरा, साधु और सिख बने जॉर्ज

आपातकाल लगने की सूचना जॉर्ज को रेडियो पर मिली। उस वक्त वे उड़ीसा में थे। उनको पता था, सबसे पहले निशाने पर होने वालों में वे भी शामिल हैं। इसलिए वे पूरे भारत में कभी मछुआरे के तो कभी साधु के रूप में घूमते फिरे। आखिर में उन्होंने अपनी दाढ़ी और बाल बढ़ जाने का फायदा उठाते हुए एक सिख का भेष धरा और भूमिगत होकर आपातकाल के खिलाफ आंदोलन चलाने लगे। तमाम सुरक्षा एजेंसियों के पीछे पड़े होने के बावजूद उन्हें पकड़ा नहीं जा सका। जबकि वे गुप्त रूप से बहुत सक्रिय थे। 15 अगस्त को उन्होंने जनता के नाम एक अपील भी जारी की। जिसमें सभी पार्टियों के बड़े नेताओं के जेल में बंद होने के चलते आंदोलन जारी रखने के लिए अलग-अलग स्तर पर नए नेतृत्व को गढ़ने की अपील की गई थी। जॉर्ज फर्नांडिस मानते थे कि अहिंसात्मक तरीके से किया जाना वाला सत्याग्रह ही न्याय के लिए लड़ने का एकमात्र तरीका नहीं है। उन्हें यह लग रहा था कि आपातकाल के खिलाफ शुरुआत में संघर्ष करने वाले संगठन अपने नेताओं की गिरफ्तारी से डर गए हैं और लड़ना नहीं चाहते। इसीलिए जो नेता बाहर बचे हैं वे मीटिंग करने के सिवाए कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं।

बड़ौदा डायनामाइट कांड

इस तरह की सोच वाले फर्नांडिस आपातकाल की घोषणा के बाद से ही सोच रहे थे कि राज्य की ऐसे वक्त में अवज्ञा का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा! उन्होंने डायनामाइट लगाकर विस्फोट और विध्वंस करने का फैसला किया। इसके लिए ज्यादातर डायनामाइट गुजरात के बड़ौदा से आया पर दूसरे राज्यों से भी इसका इंतजाम किया गया था। आपातकाल पर लिखी कूमी कपूर की किताब के अनुसार डायनामाइट के इस्तेमाल की ट्रेनिंग बड़ौदा में ही कुछ लोगों को दी गई। जॉर्ज समर्थकों के निशाने पर मुख्यतः खाली सरकारी भवन, पुल, रेलवे लाइन और इंदिरा गांधी की सभाओं के नजदीक की जगहें थीं। जॉर्ज और उनके साथियों को जून 1976 में गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद उन सहित 25 लोगों के खिलाफ सीबीआई ने मामला दर्ज किया जिसे बड़ौदा डायनामाइट केस के नाम से जाना जाता है। बाद में जॉर्ज फर्नांडिस और उनके सहयोगियों का कहना था कि वे बस पब्लिसिटी चाहते थे, ताकि देश के अंदर और बाहर लोग जान जाएं कि आपातकाल का विरोध भारत में किस स्तर पर किया जा रहा है। हिरासत में जॉर्ज के भाई लॉरेंस फर्नांडिस को पुलिस ने बहुत बुरी तरह से टॉर्चर किया था जिसके चलते उनकी टांगें हमेशा के लिए खराब हो गईं। जॉर्ज के बारे में प्रधानमंत्री इंदिरा को बार-बार ध्यान दिलाया जाता था लेकिन फिर भी पुलिस ने उन पर बहुत शारीरिक अत्याचार किए। जनता पार्टी की सरकार आने के बाद बड़ौदा डायनामाइट केस बंद कर दिया गया।

राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश और एक जननेता का क्षरण

इंदिरा गांधी द्वारा चुनावों की घोषणा के साथ ही इमरजेंसी का अंत हो गया। फर्नांडिस ने 1977 का लोकसभा चुनाव जेल में रहते हुए ही मुजफ्फरपुर लोकसभा सीट से रिकॉर्ड मतों से जीता। जनता पार्टी की सरकार में वे उद्योग मंत्री बनाए गये। बाद में जनता पार्टी टूटी, फर्नांडिस ने अपनी पार्टी समता पार्टी बनाई और भाजपा का समर्थन किया। फर्नांडिस ने अपने राजनीतिक जीवन में कुल तीन मंत्रालयों का कार्यभार संभाला – उद्योग, रेल और रक्षा मंत्रालय। पर वे इनमें से किसी में भी बहुत सफल नहीं रहे। कोंकण रेलवे के विकास का श्रेय उन्हें भले जाता हो लेकिन उनके रक्षा मंत्री रहते हुए परमाणु परीक्षण और ऑपरेशन पराक्रम का श्रेय जितना मिलना चाहिए नहीं मिला। रक्षामंत्री के रूप में जॉर्ज का कार्यकाल खासा विवादित रहा। ताबूत घोटाले और तहलका खुलासे से उनके संबंध के मामले में जॉर्ज फर्नांडिस को अदालत से तो क्लीन चिट मिल गई, लेकिन यह भी सही है कि लोगों के जेहन में यह बात अब तक बनी हुई है कि जॉर्ज फर्नांडिस के रक्षा मंत्री रहते ऐसा हुआ था। उनके कार्यकाल के दौरान परिस्थितियां इतनी खराब हो चली थीं कि मिग-29 विमानों को ‘फ्लाइंग कॉफिन’ कहा जाने लगा था। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि जॉर्ज भारत के एकमात्र रक्षामंत्री रहे जिन्होंने 6,600 मीटर ऊंचे सियाचिन ग्लेशियर का 18 बार दौरा किया था। जॉर्ज के ऑफिस में हिरोशिमा की तबाही की एक तस्वीर भी हुआ करती थी। रक्षामंत्री रहते हुए जॉर्ज के बंगले के दरवाजे कभी बंद नहीं होते थे और वे किसी नौकर की सेवा नहीं लेते थे, अपने काम स्वयं किया करते थे।

पारिवारिक विवाद ने रही-सही कसर पूरी कर दी

एक हवाई यात्रा के दौरान जॉर्ज की मुलाकात लैला कबीर से हुई थी। लैला पूर्व केंद्रीय मंत्री हुमायूं कबीर की बेटी थीं। दोनों ने कुछ वक्त एक-दूसरे को डेट किया और फिर शादी कर ली। उनका एक बेटा शॉन फर्नांडिस है जो न्यूयॉर्क में इंवेस्टमेंट बैंकर है। कहा जाता है बाद में जया जेटली से जॉर्ज की नजदीकियां बढ़ने पर लैला उन्हें छोड़कर चली गई थीं। हालांकि बाद में वे जॉर्ज की बीमारी की बात सुनकर 2010 में वापस लौट आईं। इस समय तक जॉर्ज फर्नांडिस को अल्जाइमर और पार्किंसन जैसी बीमारियां घेर चुकी थीं और वे सार्वजनिक जीवन से कट चुके थे। लैला के साथ रहने के बाद जॉर्ज के भाइयों ने भी उन पर हक जताया था। मामला अदालत तक गया। फैसला हुआ कि वे लैला और शॉन के साथ ही रहेंगे, भाई चाहें जॉर्ज को देखने आ सकते हैं। कुछ अर्सा पहले अदालत ने जया जेटली को भी लैला फर्नांडिस के मना करने के बाद जॉर्ज से मिलने से रोक दिया था। इस सारे बवाल की वजह जॉर्ज की संपत्ति बताई जाती है। मालूम हो कि जाॅर्ज फर्नांडिस का 29 जनवरी को नई दिल्ली में निधन हो गया।

विमल कुमार सिंह