पटना: बांग्ला भाषा में पुस्तक और फिल्म के लिए एक ही शब्द है- बोई। इस लिहाज से फिल्मों पर बातचीत के लिए पुस्तक मेले से बेहतर स्थान अन्य कोई नहीं हो सकता। यूं तो फिल्मों पर बातचीत शुरू से ही जरूरी रही है लेकिन जिस प्रकार से आजकल हिंसक फिल्में बनने लगी हैं, उस दृष्टि से अब यह और भी जरूरी हो चला है कि फिल्मों पर बातचीत हो।
उक्त बातें जाने-माने फिल्म विश्लेषक प्रो. जय मंगल देव ने शुक्रवार को कहीं। वे पटना पुस्तक मेले में चल रहे फिल्म फेस्टिवल को बतौर मुख्य वक्ता संबोधित कर रहे थे। विषय था – कितना जरूरी है फ़िल्मों पर बातचीत। इस फेस्टिवल के संयोजक रविकांत सिंह ने उनसे बातचीत की। प्रो. देव ने 90 के दशक में प्रकाश झा और सतीश बहादुर जैसे लोगों द्वारा फिल्म रसास्वादन के क्षेत्र में की गई पहल को याद करते हुए कहा कि आज की तारीख में फिल्मों पर बातचीत शायद ही कहीं होती है, इसके अध्ययन की तो बात दूर है।
प्रो. देव ने फिल्मों पर बातचीत करने के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि फिल्म मूलतः एक तार्किक संरचना है, जहां ‘क्या दिखाया जा रहा है?’ इससे अधिक महत्वपूर्ण उसे ‘कैसे दिखाया जा रहा है?’ होता है। इसके लिए उन्होंने कुलुशेव प्रभाव का उदाहरण देकर समझाया। सिनेमाघर में फिल्म शुरू होने के पहले जो अंधेरा किया जाता है उसका भी एक मनोवैज्ञानिक महत्व है।
बातचीत के बाद प्रो. देव से वहां उपस्थित रंगकर्मियों, सिने प्रेमियों, जनसंचार विधा के छात्र-छात्राओं ने प्रश्न किए, जिनका उन्होंने रोचक तरीके से जवाब दिया। बातचीत के बाद ‘द पर्पल स्कार्फ’ नमक लघु फिल्म और ‘झांसी की रानी नामक’ वृत्तचित्र का प्रदर्शन भी किया गया। तकनीकी सहयोग प्रभात शाही का रहा। इस अवसर पर फिल्म अध्येता प्रशांत रंजन, वरिष्ठ रंगकर्मी सुमन कुमार, अभय कुमार, संजय, बुल्लू, समेत कई गण्यमान्य उपस्थित थे।
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