फेसबुक-व्हाट्सएप आदि को आप नहीं, बल्कि वे आपको यूज़ कर रहे, इसलिए मुफ्त हैं

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डाॅ. सोनू कुमार
स्वतंत्र शोधार्थी

समय तथा युग के साथ साम्राज्यवाद का रूप भी बदलता गया है। सैनिक तथा राजनीतिक साम्राज्यवाद का युग समाप्त हो चुका है और उनका स्थान आर्थिक साम्राज्यवाद ने ले लिया है। आर्थिक साम्राज्यवाद से तात्पर्य ऐसे साम्राज्यवाद से है, जिसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई देश साम्राज्यवादी देश से नियंत्रण मुक्त होता है, परंतु परोक्ष रूप से साम्राज्यवादी शक्ति के निर्देशों का पालन करना होता है। आज अमेरिका और जी-8 देश अविकसित देशों को आर्थिक सहायता देकर परोक्ष रूप से उन पर अपने दबाव का प्रयोग करते हैं। अमेरिका अविकसित एवं छोटे देशों को आर्थिक सहायता देकर उन पर अपने दबाव तथा प्रभाव का प्रयोग करता है और इसे ’डॉलर साम्राज्यवाद’ कहा जाता है। जिस प्रकार साम्राज्यवाद के रूप में परिवर्तन हुआ है, उसी प्रकार उपनिवेशवाद के स्थान पर नव उपनिवेशवाद की स्थापना हुई है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् साम्राज्यवाद का विघटन हो गया और विश्व के अधिकांश राष्ट्र उपनिवेशवाद के चंगुल से छुटकारा पा गए। एशिया एवं अफ्रीका के अधिकांश राष्ट्र राजनीतिक दृष्टि से सम्प्रभु हैं। प्रत्यक्ष में वे भले ही स्वतंत्र हो, परन्तु परोक्ष रूप से वे किसी-न-किसी महाशक्ति के प्रभाव में हैं। ये तथाकथित राष्ट्र, वास्तव में, स्वतंत्र नहीं हैं, पराधीन हैं। “नव-उपनिवेशवाद का मुख्य लक्ष्य राजनीतिक स्वतंत्रता प्रदान करने के पश्चात् भी उनसे लाभ प्राप्त करते रहना है।“ नव-उपनिवेशवाद का लक्ष्य राजनीतिक एवं सैनिक प्रभुत्व के स्थान पर आर्थिक प्रभुत्व की स्थापना करना है।’ 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन ने आर्थिक दृष्टि से अपने प्रभाव को स्थापित कर रखा था। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् डॉलर साम्राज्य की स्थापना पश्चिमी यूरोप तथा एशिया तथा अफ्रीका के नव-स्वतंत्रता प्राप्त देशों पर हुई है। लैटिन अमेरिका के देश वैसे तो सम्प्रभु राष्ट्र हैं, परंतु वे पूर्ण रूप से अमेरिका पर निर्भर है तथा कोई स्वतंत्र नीति बनाने में असमर्थ हैं। इसी प्रकार, ’लौह-आवरण’ के पीछे पूर्वी यूरोप के देश पूर्ण रूप से सोवियत संघ के प्रभाव क्षेत्र में आ गए थे। अतः नव-उपनिवेशवाद प्रभाव वाले क्षेत्र का साम्राज्य होता है। साम्राज्यवादी शक्ति आसानी से किसी ऐसे अधीन देश को अपने प्रभाव क्षेत्र से निकलने नहीं देती है। हंगरी तथा चेकोस्लोवाकिया ने जब स्वतंत्र नीतियों का अनुसरण करना चाहा, तो सोवियत संघ ने शक्ति प्रयोग के द्वारा हस्तक्षेप किया था।

नव-उपनिवेशवाद आधुनिक जटिल अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की नयी शब्दावली है। नव-उपनिवेशवाद की संकल्पना एक अत्यंत आधुनिक संकल्पना है, जिसका उदय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ है। नव-उपनिवेशवाद शक्तिशाली और अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली राज्य का एक आर्थिक उपनिवेश या उपग्रह होता है। विकासशील और तीसरी दुनिया के नव-स्वतंत्र देशों के सम्बन्ध कुछ इस प्रकार विकसित होते जा रहे हैं कि नव-स्वतंत्र देश आर्थिक दृष्टि से दासता के शिकंजे में फँसते जा रहे हैं, चाहे भले ही राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र क्यों न परिलक्षित होते हो। “व्यापार और विदेशी सहायता’ ऊपरी तौर से तो नव-स्वतंत्र देशों के हित में लगते हैं, किन्तु यथार्थ में ये आर्थिक शोषण में परिवर्तित हो जाते हैं। राजनीतिक और सैनिक स्वरूप के उपनिवेशवाद का अंत हो चुका है। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के देशों पर ब्रिटिश, फ्रेंच, पुर्तगाली, बेल्जियम और स्पेनिश नियंत्रण लगभग समाप्त हो गया है, किन्तु बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से पश्चिमी देश नवोदित राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था में दीमक की तरह घुसते जा रहे हैं। नवोदित राष्ट्रों की प्राकृतिक सम्पदा पर धीरे-धीरे पश्चिमी राष्ट्र अधिकार करते जा रहे हैं। इसके लिए पूँजी निर्यात, आसान विनियम दरें, कच्चे माल की कीमतों पर कैंची का प्रयोग, बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा खनिज संपदा तथा उपभोक्ता व्यापार पर नियंत्रण आदि साधनों का प्रयोग किया जाता है। नव-उपनिवेशवाद का लक्ष्य है- नय स्वतंत्र देशों में विकास को पूँजीवादी दिशाओं में निर्दिष्ट करना, जिससे उन देशों के शोषण की संभावना कायम रहे। इस राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति की कोशिश में साम्राज्यवाद ने अपनी कार्यनीति बदल दी है। उसका उद्देश्य विकासशील देशों को पूँजीवादी राज्यों के एक प्रकार के ’औद्योगिक कच्चा माल तैयार करने वाले दुमछल्ले’ बना देना है। वह उनके आर्थिक ढांचे में गहरी जड़ जमाने, इन देशों को पूँजीवादी अन्तर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन को एक नयी व्यवस्था में आवयविक रूप से समाविष्ट करने, उन्हें ’प्राविधिक पराधीनता’ की श्रृंखलाओं में जकड़ने और इस प्रकार, विकासशील देशों को व्यापक की जगह सघन शोषण का शिकार बनाने के लिए खास तौर पर जोरदार प्रयास कर रहा है। आजादी के पूर्व भारतीय अर्थतंत्र पर विदेशी पूँजी, विशेषकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का लगभग एकाधिपत्य था। तेल, दवा, जूट आदि उद्योग-व्यापार, यातायात, बैंकिंग, बीमा आदि सेवाओं पर उनका पूर्ण नियंत्रण था। आजादी हासिल करने के बाद समाजवादी देशों, विशेषकर सोवियत संघ के सहयोग से इस्पात, इन्जीनियरिंग, विद्युत, तेल आदि बुनियादी उद्योगों में सशक्त सार्वजनिक क्षेत्र का विकास हुआ है। साथ ही साथ; निजी पूँजी का भी काफी विकास हुआ है। परंतु, साम्राज्यवाद के प्रति समझौता परस्त नीति और साम्राज्यवादी मदद से आर्थिक विकास करने की भ्रमपूर्ण समझदारी के कारण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अपने क्रिया-कलापों को जारी रखने तथा फैलाने की उदारतापूर्वक छूट दी गयी। फलतः राष्ट्रीय पूँजी के समानान्तर इन कम्पनियों की पूँजी में भी अबाध गति से वृद्धि हो रही है। मार्च, 1948 में भारत में कुल विदेशी पूँजी 256 करोड़ रुपये के बराबर थी, परंतु 1950 में केवल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूँजी बढ़कर 1,285.29 करोड़ रुपए के बराबर और 1972-73 में 2,821.8 करोड़ रुपए के बराबर हो गयी। कुल मिलाकर 22 वर्ष की अवधि में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूँजी में 10 गुना से भी अधिक की वृद्धि हुई नीतियों है। इन कम्पनियों का उद्देश्य भारत से अधिकाधिक धन लूटकर ले जाना है। बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियों का उदाहरण लीजिये। ये भी 18वीं शताब्दी में भारत में आयी थीं। भारत की स्वतंत्रता के समय देश के तेल उद्योग पर बर्मा शैल, कालटैक्स, बर्मा ऑयल कम्पनी तथा स्टैण्डर्ड वैक्यूम ऑयल कम्पनी का अधिकार था, परन्तु इन कम्पनियों ने भारत में एक समन्वित तेल उद्योग विकसित करने का प्रयास नहीं किया। इनका उद्देश्य अपनी प्रधान इकाइयों द्वारा एशिया में उत्पादित तेल के लिए भारत को बाजार बनाये रखना था। इसलिए इन कम्पनियों ने भारत में तेल की खोज करने, तेल निकालने तथा तेल-शोधक कारखाना खड़ा करने का कोई प्रयास नहीं किया। आजादी के बाद भारत ने अपने यहाँ से निकाले गये तेल पर आधारित एक-एक तेल शोधक कारखाना लगाने पर सहमत किया और 1951-53 के बीच सरकार के साथ समझौता संपन्न हुआ। इन कंपनियों ने काफी मुनाफा अर्जित किया और उसका बड़ा भाग देश के बाहर ले गयीं।

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बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विकासशील देशों की लूट का एक माध्यम आसान विकासशील देश कच्चा लोहा, तेल, तांबा, टीन मेैगनीेज, चाय, कॉफी आदि विकसित पूँजीवादी देशों के हाथ बेचते हैं और बदले में औद्योगिक माल दवा, रसायन, खाद्य तथा अनाज खरीदते हैं। विश्व में पूँजीवादी देशों का नियंत्रण व्यापार के आधार पर होता है। व्यापार एवं विकास आयोग के अध्ययन के अनुसार, 1952 मे 1972 के बीच विकासशील देशों द्वारा बेची जाने वाली वस्तुओं की कीमत में इस अवधि में 200 से 300 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त, पूँजीवादी देशों की 351 भिन्न तरह के 850 प्रतिबंध लगाये गए, ताकि विकासशील देशों की वस्तुएँ कम अन्यायपूर्ण कीमत-प्रणाली तथा प्रतिबंधों के कारण विकासशील देश विकसित के साथ व्यापार में विक्रेता तथा खरीददार-दोनों ही रूपों में घाटे में रहते हैं। इस घाटे के के कारण 1964 से 1973 के बीच 1,943 करोड़ डॉलर का धन विकासशील देशों में और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने हड़प लिया। विकासशील देशों में सस्ते श्रम, कच्चे माल की तीव्रता के कारण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की विकासशील देशों में विनियोजित पूंजी से प्राप्त की दर सर्वाधिक है। एशिया एवं अफ्रीका महाद्वीप के गरीब देशों के आर्थिक विकास को रोकने के लिए बहु तथा साम्राज्यवादी देशों ने असंख्य सैनिक अड्डों का निर्माण किया और वे तीसरी दुनिया को हथियारों से पाट रही हैं। आज पूरी दुनिया हथियारों से भरी पड़ी है। अमेरीका ने गुप्त ढंग से मध्य एशिया और मध्य-पूर्व एशिय वायु सैनिक अड्डे बना लिए है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि यूरोप में अमेरीका के 98,000 सैनिक मौजूद हैं। 1950 से 1972 के बीच तीसरी दुनिया में अमेरीका ने 852.2 करोड़ डाॅलर के हथियारों का निर्यात किया है। वर्ष 2001-04 के बीच विकासशील देशों में चीन ने 10.4 अरब डॉलर के सर्वाधिक हथियार खरीद के समझौते किये। चीन के बाद भारत ने 7.9 डॉलर हथियार खरीद पर हस्ताक्षर किए।

डिजिटल दुनिया के स्वरूप

आईटी नियमों यानी इंफार्मेशन टेक्नोलॉजी इण्टरमीडियरी गाइडलाइंस एण्ड डिजिटल एथिक्स कोड-2021 को लेकर भारत सरकार और ट्विटर पर्व वाट्सएप के बीच टकराव विश्व पटल पर हो रहे बड़े परिवर्तनों की नई कड़ी है। विकास अर्थव्यवस्था समाज और राजनीतिक व्यवस्था में भारी उथल-पुथल का कारण बना है। इतिहास में तकनीकी क्रांति ही असली क्रांति साबित होती आई है, जो मानव समाज को परिवर्तित करती है और अपने अनुरूप नई विचारधारा तथा राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को जन्म देती है। पिछली कुछ शताब्दियों में तकनीकी परिवर्तन पुरानी सामंतवादी व्यवस्था के पतन का कारण बना। कारखानों और उत्पादन की नई संरचना ने नए शहरों को निर्मित किया। आर्थिक शक्ति को दो इलाकों, कृषि एवं जमींदारों से उद्योगपतियों और मध्यम वर्ग को हस्तांतरिक किया, जिससे राज्य की आर्थिक एवं सैन्य शक्ति में वृद्धि हुई, जो आवागमन और संचार के बेहतर साधनों के साथ आधुनिक राष्ट्र राज्यों की उत्पत्ति में परिलक्षित हुई। केन्द्रीयकृत राज्य-सत्ता के विकास के साथ सामंतवाद का पराभव हुआ, लेकिन आज यही तकनीकी परिवर्तन राज्य सत्ता को कमजोर कर रहा है और नई सामंतवादी व्यवस्था को जन्म दे रहा है, जिसे हम ’डिजिटल’ नव-सामंतवाद यह सकते हैं । इण्टरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी द्वारा जनित कम्पनियों, जैसे- फेसबुक, एप्पल, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और अमेजन, जिन्हें बिग-टेक भी कहा जाता है, आज इतनी शक्तिशाली हैं कि इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। इन पाँच कम्पनियों के अलावा अनेक ऐसी बड़ी कम्पनियों है, जो बेहद शक्तिशाली बनती जा रही हैं। डिजिटल नव-सामंतवाद के आधार स्तम्भ हैं- अप्रत्याशित कम्प्यूटिंग शक्ति, बिग डाटा और तेजी से उभरती ऑर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी ए.आइ. आर्थिक शक्ति का निजी हाथों में अत्यधिक केंद्रीयकरण और समाज को प्रभावित करने एवं अपने अनुसार डालने की क्षमता इनकी मर्जी पर निर्भर रहने को मजबूर कर रही है। इन नए डिजिटल सामंतों की शक्ति आज लोकतांत्रिक सरकारों और राज्य की शक्ति को भी अक्षम बनाने में समर्थ है।“ डोनाल्ड ट्रंप ने राष्ट्रपति रहते लगातार अमेरिकी कानूनों, जैसे- सेक्शन 230 में परिवर्तन करके इन कम्पनियों के मनमाने व्यवहार पर रोक लगाने की बात की थी। यह खुली बात है कि इसके जवाब में इन कम्पनियों ने ट्रंप के विरुद्ध चुनावी महल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आज क्या बोला जा रहा है? क्या सोचा जा रहा है? लोग आपस में कैसे बात कर रहे? सूचनाओं का प्रसारण कैसे हो रहा है? सूचना कहाँ एकत्र हो रही है और उसका क्या इस्तेमाल हो रहा है? व्यापार एवं वाणिज्य कैसे हो रहा है? यह सब इन डिजिटल नव-सामंतवादी कम्पनियों द्वारा निर्धारित हो रहा है। आप क्या पढ़ रहे हैं? क्या देख रहे हैं? कहाँ जा रहे है? क्या लिख रहे हैं? इन सब का डाटा भी इन कम्पनियों के पास जा रहा है। इसका उपयोग लोगों की पसंद अनुसार निर्मित विज्ञापन दिखाने से लेकर राजनीतिक प्रोपेगेंडा फैलाने तक में किया जा रहा है। हमने वाट्सएप पर किसी वस्तु के बारे में बात की और फेसबुक पर उसी का विज्ञापन दिखने हम किसी स्थान पर गए और गूगल पर वहाँ की दुकानों का विज्ञापन दिखने लगा। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई के सशक्त होने से यह और भी सटीक हो गया है। इसीलिए ट्विटर वाट्सएप इत्यादि आपके लिए मुफ्त है, क्योंकि वे नहीं, बल्कि आप इन कम्पनियों के प्रोडक्ट.है, जिसे वे बेच रहे हैं। आज सत्ता का हस्तांतरण राज्य से इन डिजिटल नव-सामंतों की तरफ की धमकी दी। इस धमकी का मकसद था कि ऑस्ट्रेलिया गूगल की मनमानी रोकने का हाल में गूगल ने ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश को गंभीर परिणाम भुगतने और ऑस्ट्रेलियाई सरकार के विरूद्ध माहौल बनाने में किया जाएगा। भारत में भी ट्विटर और वाट्सएप सरकार की बात मानने से बचते रहे हैं। इस धमकी के साथ ही यह संकेत किया गया कि सूचना तंत्र का उपयोग जैसी कंपनियाँ प्रत्यक्ष तौर पर यही कर रही हैं। यही तो डिजिटल सामंतवाद है।

बहुराष्ट्रीय नियम किसी भी देश के राजनीतिक जीवन में कितना हस्तक्षेप कर सकता है, इसका उदाहरण है- लाकहीड कॉरपोरेशन, जिसने अपने अनुकूल निर्णय लिए जापान के उच्चस्तरीय एक राजनीतिज्ञ को दी। चिली में अलेन्दे् सरकार के कहानी भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हस्तक्षेप की कहानी है। किसी भी देश में ये कंपनियों दीमक की तरह घुस जाती हैं और उसके आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन पर छा जाती हैं। इसमें उपनिवेशवाद पनपने लगा है। बहुराष्ट्रीय निगम अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए सबसे प्रभावी उपयोग प्रेस और विज्ञापन का कर सकते हैं। इन नियमों को व्यापारिक बुद्धि और प्रमुख प्रचार संचार पर अधिकार कर नव विकसित देशों को उनका गुलाम बना देते है। यह गुलामी जाहिर है सिर्फ आर्थिक ही नहीं होती, सांस्कृतिक और सामाजिक भी होती है। नए आईटी नियमों के अनुसार, बिग टेक कंपनियों को भारत के नियमों का पालन करना होगा, जैसे- सरकार द्वारा प्रतिबंधित सामग्री को हटाना, किसी भी भारतीय के संविधान प्रदत अभिव्यक्ति के अधिकारों को प्रतिबंधित न करना- जब तक कि कोई कानूनी आदेश न हो, जनता के लिए शिकायत अधिकारी नियुक्त करना, भारत के नियमों के अनुसार कार्य करने के लिए अनुपालन अधिकारों और एक नोडल अधिकारी को भारत में ही तैनात करना। इसके अलावा, सरकार द्वारा कानून प्रक्रिया से दिए गए आदेश के अनुसार, किसी जुर्म-आतंकवाद, अपहरण जैसी स्थिति में वारदात से संबंधित डाटा को सरकार को उपलब्ध कराना। आज तक करोड़ों यूजर होने के बाद भी किसी भी बिग टेक कंपनी का भारत में कोई ऑफिस और अनुपालन अधिकारी नहीं है। ऐसा भारत को समुचित टैक्स देने से बचने के लिए है। ट्विटर ने पिछले साल अनुमानतः मात्र 15 लाख का टैक्स दिया। इन बिग टेक कम्पनियों ने अंतिम वक्त तक आईटी नियमों को मानने से इनकार किया। ट्विटर ने लगभग सारे नियमों का उल्लंघन करने के बावजूद आज तक सरकार की किसी नोटिस का आधिकारिक जवाब नहीं दिया है। उलटे उसने भारत सरकार के खिलाफ प्रोपेगेंडा वार शुरू कर दिया। वाट्सएप निजता के अधिकार के नाम पर सरकार के खिलाफ अदालत चला गया। यह ऐसा ही है, जैसे पुराने समय में बड़े सामंत केन्द्रीय सत्ता को मानने से इन्कार करते थे और अपने आप को सारे नियम-कानूनों से ऊपर समझते थे। याद करें कि जब कभी शासक कानून का राज स्थापित करने का प्रयत्न करता था, तो कैसे विद्रोह करके उसे हटा दिया जाता था। आज लोगों को मिलने वाली सूचना पर नियंत्रण और आम राय तय करने की क्षमता इन डिजिटल नव-सामंतों को यह भी शक्ति देती है कि वे सरकार को चुनाव में हरा सके और अपने अनुरूप सरकार बना सके। दुर्भाग्य से भारत की राजनीति आज भी वैसा ही व्यवहार कर रही है, जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी के वक्त कर रही थी।

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