राकेश प्रवीर
वरिष्ठ पत्रकार
विगत 33 वर्षों से बिहार में समाजवादियों (लालू व नीतीश) का शासन रहा है। इस दौरान क्या-क्या अच्छा हुआ, इसका तो सरकारें जोरशोर से प्रचार करती हैं। लेकिन, बिहार में क्या-क्या अच्छा हो रहा था, जो इन 33 वर्षों में ठप्प हो गया, इसके बारे में सरकारें नहीं बतातीं। यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं है कि सामाजिक न्याय के शोर में बिहार के सैकड़ों उद्योग बंद हो गए और विडंबना ऐसी कि अपहरण जैसे घृणित अपराध को अनौपचारिक रूप से उद्योग की संज्ञा दी गई। लालू जी के शासनकाल में राज्य में अराजकता इस कदर हावी रही कि माननीय उच्च न्यायालय को कहना पड़ा था कि बिहार में जंगलराज है। कई उद्योगों के बंद पड़ने की पंक्ति में बिहार का गन्ना उद्योग भी उसी कुशासन की भेंट चढ़ गया।
बिहार के किसानों द्वारा वाणिज्यिक फसल के नाम पर गन्ने की खेती की जाती रही है परन्तु राज्य की अधिकतर चीनी मिलें बंद हो चुकी हैं। अभी मात्र 10 चीनी मिल ही चालू है, जबकि आजादी के बाद बिहार में 33 चीनी मिलें थीं। 1996-97 में निगम की सात चीनी मिलें- न्यू सीवान, सीवान, रैयाम, गोरौल, बिहटा, वारिसलीगंज और गुरारू बंद हो गई। इसके बाद लौरिया और सुगौली भी बंद हो गई। बाद में निगम की सभी चीनी मिलें एक-एक कर बंद हो गई।
गन्ना के विकास के लिए अंग्रेजों द्वारा स्थापित ‘गन्ना शोध संस्थान, पूसा मृतप्राय है। गन्ना के उन्नत बीज, खेती की आधुनिक तकनीक से कम लागत पर उन्नत, टिकाऊ खेती तथा अन्य वैज्ञानिक ज्ञान एवं सुविधा प्रदान करने में यह शोध संस्थान विफल है। फलतः बिहार में गन्ना की बढ़ती उत्पादन लागत के साथ गन्ना की उत्पादकता, गुणवत्ता तथा रिकवरी देश के अन्य गन्ना उत्पादक राज्यों से काफी कम है।
लालू-राबड़ी का शासनकाल बना चीनी मिलों का कब्रगाह
राजद के शासन काल में आज से 30 वर्ष पूर्व नवादा जिले के वारिसलीगंज चीनी मिल बंद हो गई थी। बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने 1952 में इस मिल को स्थापित कराया था। मिल को दोबारा चालू होने की बात तो दूर आज तक कर्मचारियों के 26 करोड़ और किसानों के 11 करोड़ रुपये का भुगतान तक नहीं हुआ है। गुहार लगाते-लगाते सैकड़ों किसान अब इस दुनिया में भी नहीं है।
लालू प्रसाद-राबड़ी देवी का शासनकाल बिहार की चीनी मिलों के लिए कब्रगाह साबित हुआ। कभी उत्तर बिहार में 16 चीनी मिलें थीं। चनपटिया चीनी मिल 1994 में बंद हो गई। मधुबनी की लोहट चीनी मिल 1996, मोतीपुर चीनी मिला 1997 से बंद है। 1993 में दरभंगा के सकरी और एक साल बाद 1994 में रैयाम चीनी मिल में तालाबंदी हो गई। पूर्वी चंपारण की चकिया चीनी मिल भी 1994 में बंद हो गई। समस्तीपुर के हसनपुर चीनी मिल में कांग्रेस के शासनकाल 1985 से ताला बंद है। इस प्रकार 7 चीनी मिलें लालू-राबड़ी और कांग्रेस के शासनकाल के दौरान बंद हुईं और आज तक उनमें ताले लटके हुए हैं।
चीनी मिलों के पास किसानों का बकाया
चीनी मिलों के पास किसानों के गन्ना मूल्य का गत वर्ष का करीब 150 करोड़ से ज्यादा का बकाया है। कई ऐसी मिलें भी हैं, जिन्होंने किसानों को 2016-17 सीजन के बकाये का भुगतान भी अभी तक नहीं किया है।
बकाए भुगतान को लेकर मुख्यमंत्री का बयान
विगत 15 फरवरी को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने गोपालगंज और पूर्वी चंपारण की जिलास्तरीय विकास कार्यों की समीक्षा के दौरान कहा कि- ‘बंद पड़ी चीनी मिलों को फिर से स्थापित करने के लिए सरकार पहल करेगी। चीनी मिलों को चालू करने की प्रक्रिया के क्रम में ही गन्ना किसानों के अविलंब भुगतान के संबंध में नियम भी बनाया जाएगा। सासामुसा चीनी मिल प्रबंधन द्वारा यदि गन्ना किसानों के बकाए का भुगतान की दिशा में कदम नहीं उठाए गए तो उसे सीज कर सरकार किसानों के बकाए का भुगतान करने की दिशा में निर्णय करेगी।’ मगर सरकार यह कदम कब उठाएगी? गन्ना किसान परेशान हैं। मिल प्रबंधन और सरकार की चैखट तक दौड़ते-दौड़ते अब उनकी उम्मीदें भी टूटने लगी है।
बिहार में यूपी की तुलना में गन्ना का कम मूल्य
वर्ष 2021-22 के पेराई सत्र के लिए सभी तरह के गन्ने की दरों में वृद्धि करते हुए अच्छे किस्म के गन्ने का मूल्य 315 रुपए प्रति क्ंिवटल से बढ़ा कर 335 रुपए, सामान्य गन्ने का मूल्य 295 से बढ़ाकर 315 रुपए प्रति क्ंिवटल तथा निम्न प्रभेद की मूल्य 272 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 285 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया गया, फिर भी बिहार के किसानों को पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश से सभी किस्म के गन्ने पर प्रति क्विंटल 15 रुपए कम मिलता है।
बिहार में गन्ना उद्योग विभाग हाथी का दांत बन कर रह गया है। सरकार के पास गन्ना किसानों को राहत देने का कोई विजन नहीं है। विभाग का आगामी वित्तीय वर्ष के लिए मात्र 123.36 करोड़ का बजट है जिसमें से स्कीम मद में 100 करोड़ और स्थापना तथा प्रतिबद्ध व्यय मद में 23.36 करोड़ का बजट अनुमानित है। बिहार सरकार के पास बंद पड़ी चीनी मिलों को खोलने, नई चीनी मिलों को स्थापित करने, गन्ना किसानों के चीनी मिलों के पास बकाए के भुगतान कराने आदि की कोई योजना नहीं है।
बिहार की कृषि की निम्न उत्पादकता, बढ़ती उत्पादन लागत, वाजिब मूल्य नहीं मिलने, एमएसपी पर सरकारी खरीद नहीं होने, आधारभूत संरचना के संकट, मुख्य वाणिज्यिक फसल गन्ना के वाजिब मूल्य तथा मूल्य के भुगतान नहीं होने, नदी जल प्रबंधन नहीं होने, मजदूरों के पलायन,पूंजी की कमी आदि की वजह से खेती दिन पर दिन मुश्किल होती जा रही है।