प्राचीन साहित्य में लोक आस्था का महापर्व-छठ

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आलेख : रामरतन प्रसाद सिंह रत्नाकर

नवादा : भविष्य पुराण के अनुसार भगवान श्री कृष्ण की एक पत्नी जामवंती का पुत्र शाम्ब रूपमान था। शाम्ब को अपने रूप पर गर्व हो गया था और इस दर्प में उसने भगवान नारद का उपहास कर दिया। इस कारण नारद जी कुपित हो गए और उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से शाम्ब के संबंध में शिकायत की कि शाम्ब गोपियों के साथ जलविहार करता है।

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नाराज नारद ने शाम्ब को गोपियों के साथ जलविहार करते पर्वत के ऊपर से दिखाया। यह दृश्य देखकर भगवान श्री कृष्ण ने शाम्ब को शाप दे दिया। शाप के कारण शाम्ब को कुष्ठ रोग हो गया और वह दुखी रहने लगे। एक दिन नारद जी से शाम्ब ने प्रार्थना की तब नारद जी ने खुश होकर शाम को मैत्रयवन में 12 वर्षों तक सूर्य आराधना करने का निर्देश दिया।सूर्य की आराधना से शाम्ब रुपवान, गुणवान एवं सूर्य के उपासक हो गए‌।

बिहार प्रदेश के औरंगाबाद जिला मुख्यालय में 16 किलोमीटर पर देव नामक प्रसिद्ध हिंदू तीर्थ स्थल है। देव का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर एवं पास का सूर्य कुंड आस्था का केंद्र है। मान्यता है कि सातबीं शताब्दी में मगध हर्षवर्धन के अधीन हो गया।उसी कालखंड में इस मंदिर का निर्माण हुआ है। हर्षवर्धन के राज्यादेश में सूर्य, शिव और बुध को समान स्तर का देवता मानकर मंदिर और मूर्ति बनाए गए थे। देव का सूर्य मंदिर स्थापत्य कला का एक विलक्षण नमूना है। बिना किसी जुड़ाई के मानो पत्थरों पर पत्थर सीधे उठाकर रख दिया हो।

निर्माण से जुड़े कई विचार है लेकिन मान्यता है कि यह मंदिर देव के ब्रह्मर्षि राजा के द्वारा निर्मित है। कार्तिक महीने में 4 दिनों के छठ मेला में लाखों की संख्या में भक्त पधारते हैं। मगध सम्राट राजा जरासंध वैदिक धर्म मानते थे। महाभारत में लिखा है कि जिस दिन भगवान श्री कृष्ण मगध के राजनगर राजगृह भीम, अर्जुन के साथ पधारे राजा जरासंध वैदिक रीति से प्रजा के सुख समृद्धि के लिए उपवास में थे।

कहा जाता है कि राजा जरासंध के किसी पूर्वज को कुष्ठ रोग हो गया था इस रोग से मुक्ति का नियम शाकद्वीपीय ब्राह्मण क्षेत्र पर वेद के रूप में प्रतिष्ठित हुए और अपने प्रभाव से रोगियों विशेषकर कुष्ठ रोगियों को सूर्य उपासना और उन्मादक पदार्थों का वर्जन बताया। सूर्य उपासना से कठिन से कठिन रोगों की मुक्ति होते देख अन्य नागरिकों के बीच यह पर्व महत्वपूर्ण हो गया। आज भी कुष्ठ रोग से मुक्ति एवं कंचन शरीर के लिए सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है तथा उनकी महिमा में कंचन काया की मांग की जाती है। सूर्य की मूर्ति का पूजन और तदनुसार सूर्य मंदिरों के निर्माण की परंपरा शनै: शनै: आगे बढ़ी। कुषाण काल में सूर्य पूजा की परंपरा काफी अधिक विकसित हो चुकी थी।

गुप्त सम्राटों के शासनकाल में यह परंपरा और आगे बढ़ा। स्कंदगुप्त (455 से 467) ईसवी के शासनकाल में बुलंदशहर में एक सूर्य मंदिर भी बनाया गया।इसके अतिरिक्त गुप्त काल के मंदसौर(मालवा) ग्वालियर, इंदौर तथा आश्रमक (बुंदेलखंड)में सूर्य मंदिर बनाने का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। उस काल की बनी हुई कुछ मूर्तियां भी बंगाल में उपलब्ध हैं जिनसे पता चलता है कि वहां भी कुछ सूर्य मंदिर रहे होंगे।

473 ईसवी में दशपुर/मालवा में रेशम बनाने वालों के एक संघ ने भी एक सूर्य मंदिर बनवाया था। जिसकी जानकारी दशपुर वर्तमान दशोर में लगे एक शिलालेख से मिलती है। हर्ष के शासन काल में सूर्य पूजा की परंपरा अपने चरमोत्कर्ष पर थी। उस समय 3 दिन का एक अधिवेशन हुआ था जिसमें प्रथम दिन महात्मा बुद्ध की मूर्ति प्रतिष्ठित की गई, दूसरे दिन सूर्य की आराधना की गई और अंतिम दिन शिव की पूजा की गई।

पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर गया से 7 मील दूर पर प्राचीनतम सूर्य मूर्ति अंकित है।उक्त मंदिर एवं दीवार पर अंकित मानव आकृति से सूर्य देव को दो घोड़े के रथ पर सवार दर्शाया गया है। मगध के अन्य स्थानों से प्राप्त सूर्यदेव की मूर्तियां में छह और सात घोड़े दर्शाए गए हैं। बोधगया मंदिर की मूर्ति आज भी दृष्टव्य है और विचारणीय है की शुंगकाल की मूर्ति में मात्र दो घोड़े क्यों? सिरनामा में प्राप्त सूर्य देव की मूर्ति में मानव आकृति के सूर्य देव की कलात्मक मूर्ति में 6 घोड़े दर्शाया गया है। धार्मिक मान्यता है कि सूर्य देव की 6 पत्नियां है जो 6 शक्तियों का संकेत करती है।इस कारण सूर्य पूजा को षष्टि व्रत या छठ पूजा कहा जाता है।

पुरातात्विक प्रमाण के अनुसार प्राचीनतम सिक्का आहार मुद्रा में सूर्य चक्र मंडल में 6 धाराओं को दिखाया गया है। प्रायः प्राचीन सूर्य देव की मूर्तियों में छह और सात घोड़े होते हैं जो सूर्य के सतरंग किरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसे वैज्ञानिकों ने स्वीकारा है। वर्ष में छह ऋतु सूर्य के कारण होते हैं उसमें कार्तिक और चैत महीने में ऋतु बदलते ही विभिन्न रोगों और बीमारियों का प्रभाव बढ़ जाता है।

मानव सूर्य पूजा करते हैं कि सूर्य देव मेरे रक्षा करें और शीतलता का त्याग नहीं करें।कार्तिक महीने में ठंड का प्रभाव बढ़ते देख सूर्यदेव ऊर्जा देते रहें। बिहार में खरीफ की खेतों के लिए यह महीना निर्णायक होता है वही रवि की खेती एवं साग सब्जी के लिए महिना महत्वपूर्ण माना जाता है।

सातवीं शताब्दी में जब हर्षवर्धन मगध के शासक हुए तो एक नया पूजा विधान कायम हुआ और प्रत्येक मंदिर में सूर्य शिव और बुध की मूर्तियां स्थापित की गई। देव बड़गांव में प्राचीन सूर्य मंदिर का निर्माण पूर्ण कलात्मक है और कोणार्क के सूर्य मंदिर के स्थापत्य से मेल खाता है। वर्तमान सूर्य मंदिरों में कोणार्क (उड़ीसा) का सूर्य मंदिर अपना विशिष्ट स्थान रखता है। अन्य मंदिरों के समान यह मंदिर भी अनेक बार तोड़फोड़ का शिकार हुआ है।इस मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण सम्राट नरसिंह देव प्रथम (1238 से 1267) ईसवी के शासनकाल में हुआ था।

जगन्नाथ पुरी से 20 मील उत्तर-पूर्व समुद्र तट के समीप स्थित यह मंदिर कलिंग स्थापत्य शैली का बेजोड़ नमूना है। साम्ब ने इस मंदिर में कोणादित्य के नाम से सूर्य प्रतिमा स्थापित की थी और इसी नाम कोणादित्य से यह मंदिर पुराणों में चर्चित रहा सम्राट नरसिंह देव ने इसे नया स्वरूप प्रदान किया यह मंदिर भारत के प्राचीनतम सूर्य मंदिरों में एक माना गया है।

मान्यता है कि इस मंदिर का शिल्पी दैविक शक्ति से युक्त था मंदिर का निर्माण पूरा कराने के उपरांत निकट के समुद्र बंगाल की खाड़ी पर पैदल चलता हुआ आगे बढ़ गया और कुछ देर में आंखों से ओझल हो गया कोणार्क का यह मंदिर 864 फुट लंबे तथा 540 फुट चौड़े आंगन में बना हुआ है इस रात में 10:00 10 फुट ऊंचे 12 पहिए है तथा सात घोड़े तेजी से खींचते हुए दिखलाए गए हैं। छठ पर्व का प्रारंभ पुरानी संयत से होता है। इस दिन पर्व करने वाले छठ पर्व का नियम पालन करने का व्रत लेते हैं।

व्रत धारी पवित्र जल से स्नान करके पवित्र ढंग से भोजन बनाते हैं जिसमें कद्दू की सब्जी होना जरूरी माना जाता है। इस कारण सस्ता बिकने वाला कद्दू उस दिन महंगा हो जाता है। पुरानी सैंयत के अगले दिन नवहंडा होता है जिसमें नया बर्तन नया चूल्हा और पर्व के निमित्त तैयार किया गया जलावन का उपयोग होता है। इस दिन राजगृह के पूर्व और उत्तर के क्षेत्रों में अरवा चावल का भात और पश्चिम दक्षिण क्षेत्र में रसिया का प्रसाद बनता है। पूरी निष्ठा और पवित्रता का पालन करते हुए सभी प्रसाद पाते हैं।

शाम में यह आयोजन होता है। छठी मैया सविता के गीत से वातावरण शुद्ध हो जाता है। प्रथम आराधना (अराग) अस्ताचल सूर्य देव की छठव्रती करते हैं। छठ के गीत गाते नदी तालाब या जल उपलब्ध स्थान पर सपरिवार उपस्थित होकर फल फूल पकवान एवं दूध निवेदित करते हैं।सुबह उदीयमान सूर्य को अरग निवेदित के साथ चार दिवसीय छठ व्रत समाप्त होता है।

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