बिहार भाजपा का नेतृत्व सर्वाधिक ’घोंचू और लिजलिजा’

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राकेश प्रवीर

बोचहां की हार भाजपा के लिए सबक नहीं, तमाचा

राष्ट्रीय फलक पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) की चमक बरकरार रहने के बावजूद बिहार में भाजपा नीचे की ओर गिर रही है। इसकी कई वजहें हो सकती हैं, मगर उन सब में सबसे प्रमुख नीतीश कुमार (Nitish Kumar) का साथ है। नीतीश कुमार के बोझ से भाजपा बिहार में केवल दबी हुई ही नहीं है, बल्कि सिकुड़ती भी जा रही है। सत्ता की मलाई चाट रही भाजपा (BJP) को अब तक इस तल्ख हकीकत को समझ लेना चाहिए था कि नीतीश कुमार अब जनता की चित्त से उतर चुके हैं। नीति व नीयत दोनों स्तर पर अब उनका प्रभाव नहीं हैं। बोचहां उपचुनाव (Bochhan by-election) का नतीजा बीजेपी के लिए सबक नहीं, तमाचा भी है।

दरअसल 2020 में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू की 44 की तुलना में भाजपा को बिहार की जनता द्वारा 74 सीटें दिए जाने के बावजूद नीतीश कुमार की ’पालकी की कहरियाँ’ बने रहने की बीजेपी की मजबूरी समझ से परे है। लंबे समय तक सत्ता-सुख भोगने वाले बिहार भाजपा के ’लटकन नेताओं’ की सोच आज भी त्रिभुज की तीन भुजाओं में से दो के एक साथ रहने से सत्ता समीकरण सधने की उम्मीदों तक ही सीमित है, जबकि नीतीश कुमार से ऊबी-निराश जनता ऐसे ’लटकन-छपासी’ नेताओं से काफी आगे निकल चुकी है।

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अन्य राज्यों की तुलना में बिहार भाजपा का नेतृत्व भी सर्वाधिक ’घोंचू और लिजलिजा’

दूसरे, देश के अन्य राज्यों की तुलना में बिहार भाजपा का नेतृत्व भी सर्वाधिक ’घोंचू और लिजलिजा’ है। फिलहाल बिहार भाजपा के पास एक भी ऐसा चेहरा नहीं है, जिसे प्रदेश स्तरीय नेता कहा जा सके। नेतृत्व की विफलता की वजह से ही तो 2015 में जब भाजपा नीतीश कुमार से अलग होकर चुनाव लड़ रही थी तो लालू प्रसाद ने सवाल उठाया था कि ’नेता’ यानी मुख्यमंत्री का चेहरा कौन है? अमूमन भाजपा प्रभारी बन कर आने वालों ने भी बिहार को चारागाह ही बनाया, अपनी पेट भरी, राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाली लहरों से मिली सफलता का सेहरा अपने माथे बांधी और अपने लिए मनमाफिक सब कुछ हासिल कर लिया। बिहार भाजपा का दुर्भाग्य यह भी है कि बीच के कुछ वर्षों को छोड़ कर 17 वर्षों तक सत्ता में हिस्सेदारी के बावजूद उसकी मानसिकता दासता-जनित विकलांग ही बनी रही है। कार्यकर्ताओं को मौका देकर आगे बढ़ाने, हौसला अफजाई करने में पार्टी की नीति हमेशा दकियानूस ही रही है।

आखिर राजद के पक्ष में वोटों का यह ध्रुवीकरण क्यों और कैसे हुआ?

यह किसी एक उपचुनाव की हार या जीत का मसला नहीं है। राजनीति में आप चुनाव हारते और जीतते हैं। हर जीत का उत्सव और हार की समीक्षाएं भी होती हैं। क्या उन कारणों की कभी तलाश हो पाती है, जिनका दूरगामी संदेश होता है? बोचहां उपचुनाव के परिणाम का संदेश भी कुछ ऐसा ही है। अगर भाजपा वीआईपी के साथ मिलकर भी चुनाव लड़ती तब भी उसकी हार ही होती, यह चुनाव परिणाम से स्पष्ट है। बोचहां में बीजेपी की उम्मीदवार बेबी कुमारी को कुल 45,353 वोट मिले, जबकि वीआईपी उम्मीदवार गीता कुमारी को 29,671 वोट। यानी दोनों का योग 75,024 वोट होता है, जबकि राजद उम्मीदवार अमर पासवान जो निवर्तमान विधायक स्व. मुसाफिर पासवान के बेटे थे को कुल 82,116 वोट मिले जो बीजेपी और वीआईपी के कुल वोट से 7092 वोट अधिक हैं। क्या बीजेपी के कथित थिंक टैंक अपने अहम से बाहर आकर कभी इसकी समीक्षा करेंगे कि आखिर राजद के पक्ष में वोटों का यह ध्रुवीकरण क्यों और कैसे हुआ?

म्यूजिकल चेयर का खेल शुरू

यह ठीक है कि बोचहां के उपचुनाव के नतीजों के बाद बिहार की सियासत में एक नया दौर शुरू हुआ है। यह दौर है म्यूजिकल चेयर के खेल का। इस म्यूजिक की शुरुआत स्थानीय निकाय से 24 विधान परिषद सदस्यों के चुनाव से होती है। सीटों के बंटवारे से लेकर उम्मीदवारों के नामों के एलान तक भाजपा भारी उहापोह और असमंजस में रहीं। यह अलग बात है कि यह चुनाव रिकार्ड में दलीय आधार पर नहीं होता है, मगर दलीय समर्थन से स्थानीय निकाय के निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की गोलबंदी समर्थित उम्मीदवारों के पक्ष में होती है। भाजपा को विधान परिषद की अपनी चार सीटें इसलिए गंवानी पड़ी, कि उसके नेतृत्व में कोई तालमेल नहीं था। बोचहां उपचुनाव में भी इसका साफ असर दिखा।

बोचहां की करारी हार पर सहयोगी दल जदयू का तंज…

दीगर है कि बिहार में दो सहयोगी दल मिलकर सरकार चला रहे हैं, भाजपा में वीआईपी के विधायकों के विलय के बाद उसका अस्तित्व खत्म हो चुका है। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी (Former Chief Minister Jitan Ram Manjhi) की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा की सरकार में कोई बिसात दिखती नहीं है। लेकिन दोनों प्रमुख दलों में तालमेल का इतना अभाव है कि लगातार दोनों दलों की ओर से सियासी बयानबाजी जारी रहती है. बोचहां विधानसभा उपचुनाव के बाद भी बिहार की सियासी फिजां में अलग तरह के बयान तैरने लगे थे। बोचहां उपचुनाव में बीजेपी की हार के बाद सहयोगी दल यानी जदयू के नेता मुखर हो गए हैं। कहा जा रहा है कि जदयू अंदर ही अंदर काफी खुश है। बोचहां की करारी हार पर सहयोगी दल जदयू ने तंज भी कसा है। जेडीयू के एक एमएलसी ने कहा कि हाल के दिनों में बीजेपी नेताओं की ओर से सीएम नीतीश कुमार पर की गई टिप्पणी बोचहां में हार का प्रमुख कारण है।

बीजेपी को अपने नेतृत्व के लिजलिजेपन का नुकसान उठाना पड़ा

बोचहां में लड़ाई इस बार तीन तरफ से रही, राजद, बीजेपी और वीआईपी त्रिकोण बना रहे थे। गौरतलब है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में बोचहां सीट से वीआईपी के प्रत्याशी रहे मुसाफिर पासवान चुनाव जीते थे। उनके निधन के बाद इस सीट पर उप चुनाव हुए हैं। मुसाफिर पासवान के बेटे अमर पासवान को राजद ने उम्मीदवार बनाया था। इसे राजद नेता तेजस्वी यादव की रणनीतिक सफलता से ज्यादा बीजेपी नेतृत्व की विफलता के तौर पर देखा जाना चाहिए। अमर पासवान को अपने पिता के आकस्मिक निधन से रिक्त हुई सीट पर जनता की सहानुभूति का लाभ भी मिला, मगर बीजेपी को अपने नेतृत्व के लिजलिजेपन का नुकसान उठाना पड़ा है।

लोकतंत्र में अहंकार की कोई जगह नहीं

इधर बोचहां के रिजल्ट के बाद वीआईपी में भी खुशी की लहर थी। भले ही मुकेश साहनी की वीआईपी इस विधानसभा उपचुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी बनी हो, लेकिन इसके बावजूद मुकेश साहनी के आवास पर रंग गुलाल उड़े और मिठाइयों का दौर चला। मुकेश सहनी चुनाव में अपनी हार से ज्यादा भाजपा की हार पर खुश थे। चुनाव में जनता के फैसले को स्वीकार करते हुए मुकेश साहनी ने कहा कि जनता ने अपने विवेक से वोट दिया है। उन्होंने वीआईपी को 18ः वोट मिलने पर वहां के मतदाताओं को धन्यवाद दिया। भाजपा पर हमला करते हुए मुकेश साहनी ने कहा कि वहां के मतदाताओं ने लोकतंत्र में छल कपट करने वाली पार्टी को हराकर साबित कर दिया कि लोकतंत्र में अहंकार की कोई जगह नहीं होती है।

जनता कभी किसी का गुलाम नहीं होती

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बोचहां उपचुनाव के नतीजों का बिहार बीजेपी के लिए दूरगामी असर होगा। अगर बीजेपी को इस झन्नाटेदार तमाचे से उबरना है तो उसे जल्द ही अपने संगठन, नेतृत्व में सुधार के साथ ही नीतीश कुमार की दासता वाली मानसिकता से भी मुक्त होनी होगी, वरना जनता कभी किसी का गुलाम नहीं होती।

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