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द कश्मीर फाइल्स : पर्दे पर दर्द

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।

यह श्लोक ईशोपनिषद् से लिया गया है, जिसका अर्थ है कि सत्य का मुख स्वर्णमय (ज्योतिर्मय) पात्र से ढका हुआ है, हे पूषन्! आप मुझ सत्य के साधक के लिए दर्शन करने हेतु उसे दूर कर दे।

आपको आश्चर्य होगा कि फिल्म समीक्षा में यह उपनिषद् का श्लोक क्या कर रहा है? इसका उत्तर है कि विवेक अग्निहोत्री की हालिया फिल्म श्द कश्मीर फाइल्सश् की कथावस्तु। फिल्म रिलीज के बाद से ही सोशल मीडिया पर वैचारिक सुनामी को इसके जन्म दिया है। जहां मुट्ठीभर लोग इस फिल्म को कोस रहे हैं, वहीं करोड़ों लोग इसे जीवन का जरूरी अनुष्ठान मानकर सिनेमाघर का रुख कर रहे हैं। जो शायद ही कभी सिनेमाघर जाते हैं, वे भी बेसब्री से ’द कश्मीर फाइल्स’ का टिकट कटा रहे हैं। इससे उपजे विमर्श पर बाद में चर्चा होगी, पहले फिल्मी सिनेमाई दृष्टि से पड़ताल।

विवेक अग्निहोत्री पहले चॉकलेट, धन धनाधन गोल, हेट स्टोरी जैसी मसाला फिल्में बनाते थे। 2016 में ’बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’ से उन्होंने गियर बदली, उसके बाद ‘द ताशकंत फाइल्स’ लेकर आए और अब ’द कश्मीर फाइल्स’। उनकी पिछली तीन फिल्मों में एक समानता है कि विवेक एक खास नैरेटिव को ध्वस्त करने में लगे हैं। वही नैरेटिव जो आजादी के बाद से ही बुद्धिजीवियों ने गढ़ा है और भारत के करोड़ों लोगों पर थोप दिया है। उससे जरा भी अलग सोचने या बोलने पर आपको हेटमांगर्स, फासिस्ट, कम्यूनलिस्ट आदि कहकर अपमानित किया जाता है। अब ’द कश्मीर फाइल्स’ की बात।

जब 20वीं सदी के अंतिम दशक में जब भारत वैश्वीकरण की दहलीज पर पहुंच रहा था, तभी 19 जनवरी 1990 को ऋषि कश्यप के कश्मीर में कुछ ऐसा हुआ, जिससे मध्ययुगीन बर्बरता को भी शर्म आ जाए और उससे भी अधिक दुखद यह रहा कि उस विभत्स कृत्य को किसी फिल्मकार ने पर्दे पर उतारना अब तक जरूरी नहीं समझा था। विवेक अग्निहोत्री ने पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) की व्यथा को अधार बनाकर ऐसी कथा रची, जिसमें उस त्रासदी के अधिकतर पहलू सामने आए। इन पंक्तियों के लेखक से विवेक अग्निहोत्री की मुलाकात चित्र भारती फिल्मोत्सव में हुई। वहां विवेक ने बताया कि वास्तविकता में घटी कई घटनाओं का मिश्रण कर एक कथानक तैयार किया गया और तदनुसार पात्र गढ़े गए।

पुष्कर नाथ पंडित का पात्र जिहादी मानसिकता द्वारा सताए गए उन लाखों कश्मीरी हिंदुओं का प्रतीक है, जिन्हें अपनी पुश्तैनी जमीन-मकान छोड़ना पड़ा, जिन्होंने अपनी आंखों के सामने अपने परिवारजनों को मरते देखा और 30 साल बाद भी किसी के द्वारा उनकी सुध नहीं लेने पर गुमनामी में जीवन जीने को अभिशप्त हैं। पुष्कर नाथ अतीत की स्याह रात हैं, तो उनका पोता कृष्ण पंडित (दर्शन कुमार) वर्तमान के नैरेटिव वाॅर से जूझ रहा है। एक घटना के प्रभावी चित्रण से ज्यादा इस फिल्म ने नैरेटिव वाॅर को चुनौती दे दी है। नेसेयर्स द्वारा विरोध की असल वजह यही है। वर्तमान के दो और अतीत के एक कालखंड वाले परिवेश को अरेखीय कथानक के माध्यम से आगे बढ़ाया गया है।

इस इंटरकट वाले कथानक की घटनाओं को भौतिक स्वरूप देने के लिए फिल्मकार ने चातुर्य के साथ किरदारों को गढ़ा है। ब्रह्मा दत्त (मिथुन चक्रवर्ती), विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव), डाॅ. महेश कुमार (प्रकाश बेलावड़ी), हरि नारायण (पुनीत इस्सर), शारदा पंडित (भाषा सुंबली), राधिका मेनन (पल्लवी जोशी), फारूक मल्लिक बिट्टा (चिन्मय मंडलेकर) आदि ऐसे पात्र हैं, जो कश्मीर त्रासदी के विभिन्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। पत्रकार विष्णु राम (अतुल श्रीवास्तव) कहते हैं कि यह एक नैरेटिव वॉर है, जो सूचनाओं से लड़ा जाता है। सच जब तक जूते पहनता है, झूठ धरती का चक्कर लगाकर आ चुका होता है। कश्मीर में भी यही हुआ। 1990 वाले नरसंहार के पूर्व एक बार पुष्कर ने विष्णु से कहा था कि गलत खबर दिखाने से भी अधिक बुरा होता है किसी खबर को छिपा लेना। कश्मीरी हिंदुओं के दर्द को भी मीडिया ने छिपा दिया।

ब्रह्मा दत्त, विष्णु राम, डाॅ. महेश कुमार, हरि नारायण स्टेट मशीनरी के प्रतीक हैं। उनको निरीह के रूप में प्रस्तुत किया जाना प्रशासनिक विफलता को इंगित करता है। ब्रह्मा दत्त के बाॅडी लैंग्वेज से पता चलता है कि उस नरसंहार के दर्द को सीने में लेकर जीना कितना दुष्कर हो सकता है। एक जगह ब्रह्मा दत्त कहते हैं- ’’टूटे हुए लोग बोलते नहीं, उन्हें सुना जाता है।’’ यह संवाद विवेक ने स्वयं लिखा है। एक दृश्य में भाग रहे कश्मीरी हिंदू एक बड़े से घर में शरण लिए हुए हैं, जहां लालटेन की मद्धिम प्रकाश में एक बुजुर्ग उम्मीद जगाते हुए ’भारत माता की जय’ के नारे लगाता है। डर के कारण लोग फुसफुसाते हुए नारे लगाते हैं। यह दहशत के चित्रण का शानदार बिंब है। इसी दहशत में लाखों कश्मीरी हिंदू जीने को अभिशप्त हैं। अगले दृश्य में ट्रक में सवार होकर स्याह रात में सताए हुए लोग घाटी छोड़ रहे हैं। उस भयावतहता का दृश्यांकन अत्यंत प्रभावी है। ध्वनि व रंग के संयोजन से वह दृश्य पीड़ितों के दर्द को दर्शकों के सीने में उतार देता है। विस्थापित होने के बाद पुष्कर अपने पोते के साथ दिल्ली में रहकर अनुच्छेद-370 हटाने के लिए आजीवन संघर्ष करते हैं। विडंबना ऐसी कि जब अनुच्छेद-370 समाप्त हुआ, तब तक पंडितजी आंखें मूंद चुके थे। ऐसी ही कितनी विडंबनाएं कश्मीरी हिंदुओं का प्रारब्ध बन चुकी हैं।

किरदारों की बुनावट पर गौर कीजिए। कृष्ण पंडित जब फारूक मल्लिक बिट्टा से मिलने जाता है, तो शिकारा पर उसे अब्दुल मिलता है, जो कहता है कि कश्मीर ऐसा है जिसे सभी नोच खाना चाहते हैं। इन पंक्तियों के लेखक को विवेक अग्निहोत्री ने बातचीत के दौरान के बताया कि जब वे इस फिल्म के लिए लोगों का साक्षात्कार कर रहे थे, तो श्रीनगर में एक मुसलिम युवक ने इसमें दिलचस्पी दिखायी और उसी ने यह संवाद लिखा। बिट्टा की धूर्तता की पराकाष्ठा देखिए। अपने शिक्षक के बेटे को निर्ममता से मार दिया और उसके खून से सने चावल उसकी पत्नी (शारदा पंडित) को खिलाया। वर्षों बाद जब दोबारा मौका मिला तो अपने शिक्षक पुष्कर पंडित की बेरहमी से पीटाई की, कई लोगों के सामने उनकी बहु शारदा के कपड़े फाड़े और जिंदा ही आरा मशीन से शरीर को चीर दिया। यह घटना उसके बेटे शिव पंडित ने देखा। बाद को शिव पंडित के सिर में गोलीमार बिट्टा ने उसे भी मार दिया। 30 वर्ष बाद जब शारदा का छोटा बेटा कृष्ण पंडित बिट्टा से मिलता है, तो बिट्टा अपने कुकृत्य को तोड़मरोड़कर बताता है और खुद को निर्दोष सिद्ध कर देता है। यहां तक कि उसने अपनी तुलना गांधी से कर दी। बिट्टा का यह ढोंगी चरित्र कश्मीर के अलगाववादी नेताओं का प्रतिनिधित्व करता है।

निर्देशक ने घटनाओं व किरदारों का चित्रण इस प्रकार किया है, जिससे कथानक घटनात्मक विवरण के अलावा कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार के लिए जिम्मेदार जो कबिलाई मानसिकता है, उसको भी बेपर्दा करता है। यह इस फिल्म की पहली बड़ी मेरिट है। इसकी दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण मेरिट है कि इस फिल्म ने कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार की कथा इस प्रकार बुनी है कि इससे तथाकथित लिबरल्स द्वारा तैयार किया गया इकोसिस्टम दरकता है। फिल्म को गाली देने वालों के लिए असल दुखती रग यही है। कश्मीरी हिंदुओं से सहानुभूति होना या न होना, उनको न्याय मिलना या न मिलना, यह तो अलग मसला है। इसी कारण सोशल मीडिया में ’द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर विष वमन किया जा रहा है।
इस फिल्म का विरोध करने वालों का एक दुराग्रह यह भी है कि इस फिल्म ने कश्मीर मुद्दे को भुनाकर लाभ कमाया है, क्योंकि सिनेमाई शिल्प की दृष्टि यह ’बी’ ग्रेड का उत्पाद है। इस दुराग्रह के विपरीत सच यह है कि 700 लोगों के साक्षात्कार के आधार पर समानता के आधार पर कुछ घटनाओं का चयन करना और फिर उन्हें एक कथा रूप में ढालना, यह कठिन कार्य है। रीमेक व सिक्वल के सहारे खुद को फिल्मकार कहने वाले और कलाकार का चेहरा देखकर फिल्म की समीक्षा लिखने वाले इस बात को पचा नहीं पाएंगे।

रीलीज होने के आरंभिक सप्ताह में सामान्य रहने के बाद माउथ पब्लिसिटी के आधार पर दूसरे सप्ताह से सिनेमाघरों में भीड़ बढ़ने लगी। दर्शकों को खींचने में फिल्म के कथानक से अधिक योगदान उस मर्म का है, जिसे कश्मीरी भाईयों के प्रति भारतवर्ष ने महसूस किया। यह भी कि भारत के मस्तक वाले क्षेत्र में जब कश्मीरी हिंदू काटे-मारे व भागाए जा रहे थे, तब शेष भारत इससे अनजान रहा और बाद के तीन दशकों तक बलात् उसे अनजान रखा गया। यह भी कि इस आह के पाश्चाताप ने भी भारत के नागरिकों को एक बार यह फिल्म देख लेने को प्ररित किया। मानो कश्मीरी हिंदुओं की पीड़ा को कम नहीं कर सकते, तो कम से कम उनके कष्ट को जानकर उनसे समानुभूति रख सकते हैं।

दो साल पहले विधु विनोद चोपड़ा ने फिल्म ’शिकारा’ में कश्मीरी हिंदुओं के पलायन को दिखाने के बादे के पूरे विषय का ही शिकार कर लिया था। उस फिल्म ने कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के लिए विचित्र रूप से अमेरिका को जिम्मेदार ठहराया था। शिकारा की कथानक ऐसे बुनी गई थी, जिससे नरसंहार के पीछे जिन क्रूर ताकतों का हाथ था, उन पर से समाज का ध्यान भटकाया जा सके। ’शिकारा’ ने जिस विमर्श को भटकाया था, ’द कश्मीर फाइल्स’ ने उसे सुधार दिया है।