यहां ‘संस्कृत’ में बिकती हैं सब्जियां
लखनऊ/पटना : भारतवर्ष में एक समय ऐसा भी था जब दुनिया की प्राचीनतम भाषा संस्कृत सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा थी। लेकिन, आधुनिक समय में यह देवभाषा ग्रंथों में सिमट कर रह गई है। संस्कृत को फिर से जनमानस में लोकप्रिय बनाने के लिए लखनऊ में अनोखी पहल शुरू हुई है। नफासत भरी उर्दू जुबान के लिए मशहूर लखनऊ के बाजारों में संस्कृत में सब्जियां बेची जा रही हैं।
मुस्कुराएं कि, आप लखनऊ में हैं
लखनऊ शहर के निशांतगंज सब्जीमंडी में सब्जियों की सूची वाले बोर्ड टंगे हैं। इन पर संस्कृत भाषा में सब्जियों के नाम अंकित हैं। खास बात है कि ग्राहक आने पर सब्जी दुकानदार हर सब्जी के नाम भी संस्कृत में बताते हैं एवं ’आगच्छतु साकं स्वीकरोतु’ कहकर सब्जी बेचते हैं। ग्राहक भी संस्कृत में आलुकं (आलू), पलांडू (प्याज), पटोल (परवल), भिन्दिक (भिन्डी), निम्बुकम (निंबू), मरिचिक (मिर्ची), रक्त्वृन्त्कम (टमाटर), आद्रकम (अदरक) और कर्कटी (खीरा) आदि मांगते हैं। कति रुप्यकाणि अभवन्? (कितने रुपए हुए?) जवाब संस्कृत में मिलता है- दशरुप्यकाणि अभवन्।
ग्राहकों का सहयोग उत्साहजनक
स्थानीय दुकानदारों का कहना है कि आरंभ में आशंका थी कि ग्राहक संस्कृत में सब्जियों के नाम नहीं समझेंगे। फिर भी एक शुरुआत तो करनी ही थी। धीरे-धीरे मेहनत रंग लाई। अब तो ग्राहक भी संस्कृत में ही सब्जियों के नाम बताते हैं। मंडी के सब्जी दुकानदार मनोज कुमार का कहना है कि कुछ स्वार्थी लोगों ने समाज में यह भ्रम फैला दिया है कि संस्कृत अत्यंत ही कठिन भाषा है, जबकि सच्चाई है कि हम जैसे कम पढ़े-लिखे सब्जी दुकानदार जब संस्कृत समझ सकते हैं, तो अन्य लोग भी बगैर किसी कठिनाई के संस्कृत समझ सकते हैं।
अपने मूल को बचाने की कोशिश
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के प्रशासनिक अधिकारी जगदानंद झा ने इस संबंध में दूरभाष पर वार्ता के दौरान बताया कि अपनी भाषा को बचाने की यह एक कोशिश है। मेरे घर में पत्नी और दोनों बच्चे संस्कृत में ही बात करते हैं। संस्कृत को बेवजह क्लिष्ट भाषा माना जाता है। सच तो यह है कि दैनिक जनजीवन में हमलोग जितने शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, उसमें से करीब 60 प्रतिशत शब्द प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में संस्कृत से संबंध रखते हैं या यूं कहें कि संस्कृत शब्द ही होते हैं। हिंदी में जो तत्सम शब्द की अवधारणा है, वह स्पष्ट तौर पर संस्कृत ही है। जो व्यक्ति संस्कृत जानता हो, उसे असमिया, ओडिया, बांग्ला, गुजराती, मराठी व दक्षिण भारतीय भाषाओं को समझने में आसानी होगी। हिंदी के मुकाबले मराठी, बांग्ला व ओडिया समेत अधिकतर भारतीय भाषाओं में संस्कृत शब्दों का अधिक समावेश है। प्राचीन भारत में संस्कृत आमजन की भाषा थी। लेकिन, आज यह ग्रंथों तक सिमट कर रह गई है। इस पर झा का कहना है कि भाषा विज्ञान में मुख-सुख का सिद्धांत है। जो शब्द मुंह द्वारा बोलने में अधिक सुविधाजनक होते हैं, लोग उसे अपना लेते हैं। यही कारण है कि समय के साथ संस्कृत शब्दों का अपभ्रंश रूप लोक व्यवहार में आ गया।
संस्कृत भारती के प्रांत मंत्री चंद्रप्रकाश त्रिपाठी का मानना है कि अज्ञानता और सुनी-सुनाई बातों के कारण संस्कृत को लेकर आमजन में यह धारणा बन गई है कि संस्कृत एक कठिन भाषा है। लेकिन, वास्तविकता ऐसी नहीं है। सरकार को चाहिए कि संस्कृत के लिए समेकित प्रयास करे, जिससे कि संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा ग्रंथों से निकलकर फिर से भारत के आमजन की भाषा बन जाए।
(प्रशांत रंजन)