‘राष्ट्र निर्माताओं की पत्रकारिता’: अतीत के वातायन से झांकती भविष्य की राह

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पुस्तक का आवरण

पुस्तक समीक्षा

किसी महापुरुष ने बिलकुल ठीक कहा है, ‘अतीत में जितनी दूर तक देख सकते हो, देखो, इससे भविष्य की राह निकलेगी।’ ढाई दशकों तक संस्थागत पत्रकारिता में सक्रिय रहने के बाद पिछले एक दशक से अधिक से महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में जनसंचार का पूर्णकालीक अध्यापन कर रहे वरिष्ठ पत्रकार कृपाशंकर चौबे रचित पुस्तक ‘राष्ट्र निर्माताओं की पत्रकारिता’ एक ऐसी ही सराहनीय कोशिश है जिसके तहत उन्होंने देश के शीर्षस्थ स्वाधीनता सेनानी, राष्ट्र निर्माता और भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत सात शख्सियतों बाल गंगााधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस व प्रख्यात समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया की पत्रकारिता को रेखांकित किया है।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारीय योगदान सर्वसिद्ध है। कई विचारकों का मानना है कि अगर 1857 के पूर्व भारत में भाषाई पत्रकारिता का उद्भव व विकास हो गया रहता तो शायद हमें अपनी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने में और जल्दी सफलता मिल जाती। थोड़ी देर से ही सही, मगर भारत में पत्रकारिता के विकास के साथ ही भारतीय पुनर्जागरण और स्वाधीनता संग्राम को गति मिलने लगी थी। यहीं वजह है कि उस दौर की पत्रकारिता हमारे राष्ट्र निर्माताओं के लक्ष्य-संधान का हथियार बनी।

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विद्वान लेखक ने ‘अपनी बात’ में ठीक ही कहा है कि-‘ स्वातंत्र्यकामी राष्ट्र निमा्रताओं को यह पता था कि फिरंगियों की अनीति का प्रतिरोध करने की कीमत जेल-जब्ती-जुर्माने के रूप में चुकानी पड़ेगी। इसके बावजूद वे कभी डिगे नहीं। वे अपने महत् दायित्व, जातीय चेतना और युग बोध के प्रति पूर्ण सचेत थे। राष्ट्र निर्माताआंे की पत्रकारिता के मर्म और कर्म, उनकी पत्रकारिता की गगनचुम्बी विरासत और गौरवशाली अतीत से परिचित कराते हुए इस पुस्तक में यह यत्न भी किया गया है कि पाठकों को यह भी पता चले कि पत्रकारिता का स्वरूप गढ़ने में राष्ट्र निर्माताओं की कितनी विधायक भूमिका रही है।’

दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतवंशियों के अधिकारों की रक्षा के लिए गांधी जी ने 04 जून, 1903 को साप्ताहिक समाचार पत्र ‘इंडियन ओपिनियन’ निकाला। करीब 10 वर्षों तक इस समाचार पत्र के जरिए उन्होंने रंगभेद के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ी। उन्होंने लिखा है-‘ इतने वर्षों के बाद मुझे लगता है कि इस अखबार ने हिन्दुस्तानी समाज की अच्छी सेवा की है। उसमें मैं प्रति सप्ताह अपनी आत्मा उड़ेलता था और जिसे मैं सत्याग्रह के रूप में पहचानता था, उसे समझाने का प्रयत्न करता था। जेल के समयों को छोड़कर दस वर्षों के अर्थात सन् 1914 तक के ‘इंडियन ओपिनियन’ के शायद ही कोई अंक ऐसे होंगे, जिनमें मैंने कुछ लिखा न हो। इनमें मैंने एक भी शब्द बिना विचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को केवल खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझ कर अतिश्योक्ति की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता।’ वाकई गांधी जी की इस टिप्पणी से आज के पत्रकार यह सीख ले सकते हैं कि उन्हें भी एक शब्द भी बिना विचारे, बिना तौले या किसी को खुश करने के लिए नहीं लिखना चाहिए। दरअसल आज पत्रकारिता की जैसी स्थिति बनी है और उसे जिस तरह के आरोपों से दो-चार करना पड़ रहा है, ऐसे में गांधी जी की उक्त टिप्पणी पत्रकारिता का पथ-प्रदर्शक हो सकती है।

दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्ष रहने के बाद गांधी जी 09 जनवरी, 1915 को भारत आए। सत्याग्रह की शिक्षा देने व देशवासियों की दुर्दशा के प्रति चिन्तित गांधीजी ने यहां भी पत्रकारिता का सहारा लिया। अगस्त, 1919 में उन्होंने अंग्रेजी साप्ताहिक ‘यंग इंडिया’ का प्रकाशन शुरू किया। 07 सितम्बर, 1919 से उन्होंने गुजराती साप्ताहिक ‘नवजीवन’ का संपादन भार संभाला। दरअसल गांधी जी पत्रकारिता के माध्यम से अपने देश के लोगों को सत्याग्रह का रहस्य बताने के लिए आकुल-व्याकुल थे, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में वेे इसका सफल प्रयोग कर चुके थे। गांधी जी स्वाधीनता प्राप्ति के लक्ष्य के साथ भारतीय समाज में सुधारात्मक आंदोलन को भी गति देना चाहते थे, इसीलिए उन्हांेने अनेक सामाजिक कुरीतियों व वर्जनाओं पर भी लगातार प्रहार किया। ‘हरिजन’ को उन्होंने छुआछूत दूर करने व दलितोद्धार का हथियार बनाया।
इसके पूर्व ‘केसरी’ के माध्यम से बाल गंगाधर तिलक ने भी यही काम किया। एक तरफ ब्रिटिश शासन की अनीति की आलोचना, दूसरी तरह देशवासियों में राष्ट्रीयता की भावना जगाना, यही ‘केसरी’ का मकसद था। ‘स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का उद्घोष करने वाले तिलक को अनेक बार ब्रिटिश शासन की यातना और जेल की सजा तक भोगनी पड़ी, मगर वे अपने ध्यये से कभी पीछे नहीं हटे। ‘केसरी’ के जरिए एक ओर जहां तिलक ब्रिटिश शासन की अनीतियों पर चोट करते रहें वहीं राष्ट्रीय जनजागृति का अभियान भी चलाते रहे।

‘हिन्दोस्थान’ और पं. मदन मोहन मालवीय की पत्रकारिता स्वाधीनता संग्राम को वैचारिक धरातल देने व देशवासियों में नवचेतना के प्रसार के लिए सदैव याद की जाएगी। ‘हिन्दोस्थान’ के मुख पृष्ठ पर प्रकाशित ध्येय वाक्य से ही राष्ट्रीयता, स्वदेश प्रेम एवं भविष्य के भारत की संकल्पना स्वयमेव रूपायित होती है। 1887 में मालवीय जी ने ‘हिन्दोस्थान’ का संपादन भार संभाला। गांवों की समस्याओं को प्रमुखता देने के साथ ही विकास समाचार का प्रारंभ भी इसी अखबार से हुआ। मालवीय जी की मान्यता थी कि ग्राम हित में ही देश हित जुड़ा हुआ है। मालवीय जी ने ढाई वर्षों तक निरन्तर ‘हिन्दोस्थान’ का संपादन किया और अपने तथा अपने पत्र के लिए आपार कीर्ति अर्जित की। ‘हिन्दोस्थान’ का संपादन छोड़ने के बाद मालवीय जी अंग्रेजी साप्ताहिक ‘इंडियन यूनियन’के संपादन कार्य से जुडे थे। बाद में उन्होंने 1907 में साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। ‘अभ्युदय’ के माध्यम से उन्होंने तर्कपूर्ण ढंग से अंग्रेजो के उस अपप्रचार का खंडन किया जिसमें भारतीयों को स्वराज संचालन में अक्षम बताया जा रहा था। देशवासियों की उदासीनता व शिथिलता को लेकर मालवीय जी चिन्तित रहते थे,इसीलिए वे अक्सर अपने अग्रलेखों व टिप्पणियों में देशवासियों को उनके पराक्रम और शौर्य का स्मरण दिला कर उनमें साहस का संचार किया करते थे।

मौलाना अबुल कलाम आजाद ने बाल्यावस्था में ही पत्रकारिता प्रारंभ कर दी थी। मौलाना आजाद की ‘अल हिलाल’ पत्रिका ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ मुस्लिम समुदाय को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसकी इस भूमिका को अखिल भारतीय स्वीकृति भी मिली। जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘द डिस्कवरी आॅफ इंडिया’में लिखा-‘ हिन्दुस्तान के मुसलमानी दिमाग की तरक्की में सन् 1912 भी एक खास साल है, क्योंकि उसमें दो नए सप्ताहिक निकलने शुरू हए। उनमें से एक तो ‘अल हिलाल’ को मौलाना अबुल कलाम आजाद ने चलाया था। वे एक चैबीस बरस के नौजवान थे। नेहरू ने मौलाना आजाद की शख्सियत के बारे में लिखा,‘उनका नजरिया बुद्धिवादी था और साथ ही इस्लामी साहित्य और इतिहास की उन्हें पूरी जानकारी थी। ब्रिटिश सरकार ने ‘अल हिलाल’ के प्रेस को 1914 में जब्त कर लिया। इसके बाद आजाद ने एक दूसरा साप्ताहिक ‘अल बिलाग’ निकाला, लेकिन ब्रिटिश सरकार द्वारा आजाद को कैद किए जाने पर वह भी सन् 1916 में बंद हो गया।

बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर का मानना थ कि दलितों को जागरूक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए उनका स्वयं का मीडिया अनिवार्य है। इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने 31 जनवरी, 1920 को दलितों का अपना समाचार पत्र ‘मूकनायक’ का मराठी में प्रकाशन शुरू किया। उसके चार साल बाद 3 अप्रैल, 1927 को डा. अम्बेडकर ने बंबई से दूसरा मराठी पाक्षिक ‘ बहिष्कृत भारत’ निकाला। अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से अम्बेडकर ने उद्देश्यपूर्ण ढंग से अछूतपन की बहस को आगे बढ़ाया। 24 नवम्बर, 1930 को बंबई से ही उन्होंने पाक्षिक समाचार पत्र ‘जनता’ निकाला। अम्बेडकर अपने पत्रकारीय लेखन में अछूतों के प्रश्नों को एक नैतिक आवेग के साथ उठाते थे। दरअसल अम्बेडकर की पत्रिकाएं मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, जनता और प्रबुद्ध भारत में प्रकाशित उनकी संपादकीय टिप्पणियां भारत की समाज व्यवस्था से मुठभेड़ के रूप में देखी जानी चाहिए।

अपने समकालीन नेताओं की तरह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के साथ ही पत्रकारिता को भी अपने उद्देश्य पूर्ति का हथियार बनाया। उन्होंने 05 अगस्त, 1939 को अंग्रेजी साप्ताहिक समाचार पत्र ‘फारवर्ड ब्लाक’ निकाला और 01 जून 1940 तक उसका संपादन किया। सुभाष चन्द्र बोस सत्याग्रह की विधि से पूर्ण स्वराज हासिल करना चाहते थे। इसीलिए उनका अखबार ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार की अपील और राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग जोरदार तरीके से करता था।

प्रखर समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने समाजवादी समाज की स्थापना के लक्ष्य को सामने रखकर सक्रिय पत्रकारिता की थी। उन्होंने अगस्त, 1956 में अंग्रेजी मासिक ‘मैनकाइंड’ और मई 1959 में हिंदी मासिक पत्रिका ‘जन’ निकाली। दोनों पत्रिकाओं का उद्देश्य हिन्दुस्तान और दुनिया में आदमी की जिंदगी की असलियतों की जानकारी हासिल करना और उसके भविष्य की खोज करना था। उनकी पत्रिकाओं के हर अंक में जानकारी भरे विचारपूर्ण लेख, दस्तावेज और जीवंत संपादकीय टिप्पणियां होती थीं।

इन राष्ट्र निर्माताओं की पत्रकारिता पर गौर करें, तो स्पष्ट है कि उन्होंने अन्याय और अनीति का प्रतिरोध, स्वाधीनता की प्राप्ति, स्वदेश वासियों के उत्थान के निमित्त ही पत्रकारिता का संधान किया, जो आज भी हम सबके लिए प्रेरणास्पद हैं। लेखक की श्रमपूर्ण साधना और शोधपरक दृष्टि से पुस्तक उपयोगी बन पाई है।

पुस्तक- ‘राष्ट्र निर्माताओं की पत्रकारिता’
लेखक- कृपाशंकर चौबे
प्रकाशक- प्रलेक प्रकाशन प्रा. लि., मुम्बई
मूल्य- 200 रुपए

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