फणीश्वरनाथ रेणु की जन्मशती पर राष्ट्रीय संगोष्ठी में ‘लोक-रंग और रेणु का कथाशिल्प’ तथा ‘1950 का राष्ट्रीय परिदृश्य और रेणु के उपन्यास’ पर हुई चर्चा
पटना : फणीश्वरनाथ रेणु का जन्मशती वर्ष पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग द्वारा मनाया जा रहा है। पटना महाविद्यालय के सेमीनार हॉल में आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी में उद्घाटन सत्र समेत कुल छह सत्र होंगें, जिसमें रेणु-साहित्य के विभिन्न पक्षों पर विचार-विमर्श होगा। संगोष्ठी का उद्घाटन बिहार के शिक्षा मंत्री विजय कुमार चौधरी ने किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि हम चले जायेंगे, लेकिन रेणु का साहित्य बचा रहेगा।
हमारी पीढ़ी को रेणु का साहित्य बचायेगा- विजय कुमार चौधरी
उद्घाटन सत्र के पश्चात दूसरे सत्र का विषय था ‘लोक-रंग और रेणु का कथाशिल्प’। इस सत्र की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय के प्रोफ़ेसर रहे पुरुषोत्तम अग्रवाल ने की। इस सत्र में रांची से आये उपन्यासकार रणेन्द्र ने कहा कि रेणु ने अपने कथा साहित्य में अपने समाज के विविध रूपों को चित्रित किया है। उन्होंने अपनी कथा में भारतीयता की खोज की है। निम्नवर्गीय समाज के जीवन संघर्षों को रचनात्मक रूप में लाया है। उनके समय के अपने ऐसे महत्वपूर्ण पक्ष हैं जो उनसे छूट गये हैं जिसे समेटने की जवाबदेही हमारी है।
बनारस हिन्दू विश्विद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर आशीष त्रिपाठी ने कहा कि रेणु के कथाशिल्प पर हिंदी के कथाकर प्रेमचंद के प्रभाव के साथ बाँग्ला के रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र, बंकिमचन्द्र चटोपाध्याय का प्रभाव भी देखा जाना चाहिये। रेणु के पात्र प्रेमचंद के पात्रों की तरह सामाजिक और यथार्थवादी हैं। रेणु के पात्र प्रेमचंद के पात्रों से आगे सांस्कृतिक है। रेणु की आंचलिकता का विमर्श बहुत भ्रामक है। इसी तरह उन्हें लोकरंग का कथाकर मान लेना भी भ्रामक है। रेणु के कथाशिल्प में गाँव अन्तरग्रथित है।
जम्मू से आयी कथाकार प्रत्यक्षा ने कहा कि रेणु राजनीतिक विषयों पर भी बहुत रोमांचित होकर लिखते हैं। जुलूस उनकी बहुत प्रिय किताब है। इसमें अपने घर तलाशने की कहानी लिखते है। इस सत्र के अंत में वक्ताओं से प्रश्न किया गया। इस सत्र का संचालन पटना कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक मार्तण्ड प्रगल्भ ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन प्रो इन्द्रनारायण ने किया।
तीसरे सत्र विषय था ‘1950 का राष्ट्रीय परिदृश्य और रेणु के उपन्यास’
तीसरे सत्र के आरंभ में दिल्ली के आशुतोष कुमार ने कहा कि रेणु अंचल में बनने वाली कहानी को राष्ट्र की कहानी बनाना चाहते थे। वे अंचल की कहानी को राष्ट्रीय कहानी का विरोधी नहीं बताते बल्कि अंचल में प्रवेश करने वाली राष्ट्रीय कहानी को अंचल की कहानी बनाते हैं। रेणु यथार्थ के जिस रूप को अपनी कहानियों में कहना चाहते थे उस रूप को प्रेमचंद की शैली में नहीं कह सकते थे।
चर्चित कथाकार गीताश्री ने कहा कि रेणु जिस दौर में लेखन कर रहे थे उसी दौर में महिलाओं को पहचान मिल रही थी। रेणु की रचनाओं में अपनी पहचान के लिए महिलाओं के उस तरह संघर्ष नहीं मिलता जिस तरह आज के स्त्रीवाद लेखन में मिलता है। लेकिन महिलाओं की पहचान को उन्होंने नज़रअंदाज़ नहीं किया है। रेणु की रचनाओं में अधिकांश महिला पात्र यौन शोषण का शिकार हैं पर रेणु इन महिला पात्रों के इन स्थितियों में अनुकूलन के विरुद्ध आवाज नहीं उठाते।
मुज़्ज़फ़रपुर से आईं चर्चित कथाकार पूनम सिंह ने कहा कि 50 का दशक पूर्णिया काला पानी की तरह था। रेणु यथार्थ वादी लेखक थे। मैला आँचल को किसान आंदोलन के संदर्भ में भी देखने की जरूरत है। किसान आंदोलन ने मैला आँचल के वैश्विक रूप के परचम को लहराता है। संथालों को जमीन से बेदखल कर दिए जाने के सवाल को भी रेणु उठाते हैं। बाद में नक्सलबाड़ी आंदोलन भी होता है। सरकारें भूमिसुधार की बातें तो करती हैं लेकिन उसे लागू नहीं करती। दीर्घतपा उपन्यास का सवाल आज भी खड़ा है। शेल्टर होम में महिलाओं का शोषण आजभी जारी है। रेणु जुलूस में विस्थापन के प्रश्न को उठाते हैं। आज अपने देश सीएए और एनआरसी के द्वारा लोगों को विस्थापित किया जा रहा है।
इस सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए चर्चित कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर ने इस दो दिवसीय आयोजन के लिए बधाई देते हुए कहा कि मैला आंचल पहली बार समता प्रकाशन पटना से छपा था। रेणु मैला आंचल में पोएटिक हो गए हैं। रेणु के उपन्यास में सिर्फ यथार्थ ही नहीं सपने भी हैं। रेणु भारतमाता के आंसू पोछना चाहते हैं लेकिन असमर्थ हैं। रेणु जी नेपाली क्रांति में सशत्र रूप से भाग लिया तथा 1950 में वहां से लौटे। रेणु जी से यह भूल हो गई कि उन्होंने ‘मैला आँचल’ को आंचलिक उपन्यास कह डाला। इस बात की स्वीकारोक्ति लोठार लुतसे से इंटरव्यू में की थी।”
इस सत्र का संचालन डॉ पीयूष राज ने किया और धन्यवाद ज्ञापन मगध विश्विद्यालय हिंदी विभाग की प्रो अरुणा ने किया।
दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में शहर के प्रमुख बुद्धिजीवियों में साहित्य अकादमी से समानित कवि अरुण कमल, बिहार विरासत विकास समिति के विजय कुमार चौधरी, तद्भव के संपादक अखिलेश, सुमन केशरी, पटना विश्विद्यालय के पूर्व कुलपति रासबिहारी सिंह, कथाकार अवधेश प्रीत, कथाकार सन्तोष दीक्षित, कथाकार हृषीकेश सुलभ, कवि कुमार मुकुल, डॉ कंचन, योगेश प्रताप शेखर, निवेदिता झा, सुनीता गुप्ता, वीरेंद्र झा, सुनील सिंह, राकेश रंजन, बी.एन विश्वकर्मा, अनीश अंकुर, रँगकर्मी जयप्रकाश, गजेन्द्रकांत शर्मा, गौतम गुलाल, वेंकटेश, विद्याभूषण, श्रीधर करुणानिधि, डॉ राकेश शर्मा, गोपाल शर्मा, सुनील झा, कुणाल, अनीश, संजय कुंदन, डॉ गुरुचरण, रामरतन, अनुज, सुनील, अशोक क्रांति, इंद्रजीत आदि शामिल हुए।